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अदालतोंका अपमान


न्त्रताकी रक्षा करनी थी। जहां तक हमे अनुभव है हमने भली भांति देख लिया था कि हमारी कार्रवाईसे अदालतका किसी भो तरहसे अपमान नहीं हुआ है। हमारा पैरवी करना इस बातपर निर्भर था कि क्षमा प्रार्थना तो नहीं ही करना था वल्कि भविष्यमें भी ऐसी अवस्था उपस्थित हो जाने पर हम फिर उसी तरहको आलोचना और प्रत्यालोचना करनेके लिये तैयार थे। हमारी धारणा है कि अदालतके सामने क्षमा प्रार्थना करनेके बाद मनुष्यको उसके पालनेकी भी चेष्टा करनी चाहिये। इसके अतिरिक्त अदालतके प्रति भी हमारा एक कर्तव्य था। चीफ जस्टिसकी सलाहको स्वीकार कर लेना हमारे लिये साधारण बात नहीं थी विशषकर ऐसी अवस्था- मे जब कि वे हमारे साथ पत्र व्यवहार करनेमें बड़े ही साजन्यतासे काम लेते हैं। हमारी स्थिति दोलायमान थी। इस लिये हमने यही निश्चय किया कि हम किसी तरहकी पैरवी नहीं करेगे केवलमात्र लिखित बयान देकर साफ शब्दोंमें मच्ची स्थितिको दिग्दर्शन करा देंगे और इस बातका फैसला अदालतके हाथमें छोड देंगे कि वह जो उचित समझे करे। केवल यह बात दिखलानेके लिये कि हमारी मन्शा अदालतका किसी तरहसे अपमान करनेकी नहीं है और न हम यही चाहते हैं कि इस अभियोगको लेकर चारों ओर ढिढोरा पीटा जाय इसलिये हमने इसके प्रकाशनको रोकनेकी चेष्टा की। आज हम इस बातको साहसके साथ लिखते हैं कि हमनेअदालतको