पृष्ठ:यंग इण्डिया.djvu/४४३

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कुछ प्रश्नोंका उत्तर

का प्रश्न कहांसे उठता है? खिलाफतके प्रश्नका मुसलमानों पर जो बोझ है उसको हलका करने में हिन्दू, अंग्रेज तथा भारत सरकार सभी हाथ बटा रहे हैं ? इतने पर भी यदि हम लोगोंको सफलता नहीं मिलती तो इसमें हमारा क्या दोष? तो क्या हमें असहयोग करना चाहिये? और यदि चाहिये तो किसके साथ?,

मेरे हृदयमें कुछ बातें आ गई हैं और मैं उन्हें लिखकर आपके सामने उपस्थित करता हूं कि उनपर आचरण करके देखिये कि क्या फल निकलता है:-

(१) चुपचाप प्रतीक्षा कीजिये और देखिये कि तुर्को के साथ सन्धिकी क्या शर्ते होती हैं।

(२) यदि ये शर्ते भारत सरकार तथा भारतकी प्रजाकी आकांक्षाओं और शिफारिसोंके अनुकूल न हों तो उनमें सुधार लानेके लिये हर एक न्यायपूर्ण और संगत तरीकोंसे काम लेना चाहिये।

(३) चाहे कितनो शत्रुता क्यों न हो जाय हमें उस सरकार के साथ तबतक सहयोग करना चाहिये जबतक वह सहयोग करती है और जब वह सहयोग त्याग देती है तो हमें उससे असहयोग करना चाहिये।

अभी तक तो मेरी समझमें ऐसे कोई भी कारण उपस्थित नहीं हुए हैं जिसके लिये हमलोग भारत सरकारके साथ असह-योग करें और जबतक भारत सरकार भारतीयोंकी न्यायपूर्ण और संगत मागोंकी अवहेलना न करे हमें उसके साथ असहयोग