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(२४)
[चौथा
याक़ूतीतख़्ती


तल्वार तुम्हारे गले पर पड़े।"

मैंने कहा,-"खैर, जो होगा, देखा जायगा। बस, तुम इस तख्ती को लाओ, मेरे हवाले करो।"

सिपाही,-"अब यह तख्ती तुम्हें लौटाई न जायगी। क्योंकि इस पर तुम्हारा कोई हक जायज़ नहीं है और माल बरामद होनेपर वह फिर चोट्टे को लौटाया नहीं जाता।"

निदान यों कहकर वह सिपाही उस तख्ती को लिए हुए उस खोह के बाहर चला गया और बाहर जाकर उसने फिर उस कंदरा के द्वार को बंद कर दिया। मैं पुनः अंधकार-समुद्र में डूबने उतराने लगा और इस बात पर सोच बिचार करने लगा कि यह तख्ती तो हमीदा ने मुझे दी थी, फिर इसके चोरी जाने की बात कैले फैलाई गई! ओह, क्या हमीदा ने मुझसे उस उपकार के बदले ऐसा विश्वासधात किया!

मैंने ऐसा सोचा तो सही, पर इस बात पर मेरा विश्वास न जमा और मेरे मानसपटल पर हमीदा सर्वथा निर्दोष हीदिखलाई देने लगी। तब मेरा ध्यान अबदुल पर गया। इस बात पर चित्त ने भी पूरा विश्वास कर लिया कि यह सब उसी हरामज़ादे का कमीनापन है। किन्तु इस का तत्व तब तक मैं नहीं समझ सका था कि मेरे उस उपकार के बदले में अबदुल ने ऐसा नीच प्रत्युपकार किसलिये किया!

अस्तु, इन्हीं बातों को देर तक मैं सोचता रहा, पर सुन्दरी हमीदा पर फिर मुझे मुतलक संदेह न हुआ। किन्तु क्यों न हुआ? इसका यही कारण है कि प्रायः स्त्रियां विश्वासघातिनी नहीं होती, चाहे पुरुषजाति कैसीही कृतघ्न क्यों न हो।

निदान, देरतक में अपनी इसी उधेड़बुन में लगा था कि इतने ही में पुनः उस गुफा का द्वार खुला और मशाल का उजला भीतर आया। यह देख कर मैं सावधान हो बैठा और आनेवाले की राह देखने लगा। तुरंतही हाथ में एक छोटी सी मशाल लिए हुए हमीदा मेरे सामने आ खड़ी हुई।

उस समय वह सफ़ेद पोशाक पहरे हुई थी, उसके एक हाथ में बरछा कमर में कटार और दूसरे हाथ में वही छोटीसी मशाल थी। उसके मुखड़े से वीरता चुई पड़ती थी और कदाचित क्रोध के मारे उसकी आंखें लाल होरही थीं।