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[नवां
याक़ूतीतख़्ती


आम रास्ते को छोड़ कर छिपी हुई पगडंडियों के रास्ते से चलेंगे।"

वह सुरंग बहुत ही तंग थी, इसलिये एक आदमी से ज्यादे एक साथ बराबर नहीं चल सकता था, किन्तु उसकी उंचाई इतनी अवश्य थी कि कैसा ही लंबा आदमी क्यों न हो, बराबर तन कर चल सकेगा।

निदान, कुछ देर में सुरंग को तय कर के हम लोग उससे बाहर हुए और हमीदा उसके द्वार को बंद कर और मशाल बुझा कर मेरे साथ हुई। आज कितने दिनों पीछे मैने खुले मैदान की हवा खाई और आस्मान की सूरत देखी। उस समय मुझे कितना आनन्द हुआ था, इसका बखान में किसी तरह भी नहीं कर सकता।

अब जिस मार्ग से हम लोग चलने लगे थे, वह बहुत ही सकरा, बीहड़ ऊबड़ खाबड़, घने जंगलों से छिपा हुआ और बिल्कुल अन्धकार में डूबा हुआ था, किन्तु तो भी हमीदा बड़ी आसानी से मुझे राह दिखलाती हुई आगे आगे चलरही थी और बड़ी कठिनता से मैं उसके पीछे पीछे चल रहा था।

चलते चलते हमीदा खड़ी हो गई और बोली,-"आज कल अंगरेजों से लड़ाई लगी रहने के सबब सब घाटियों और नाकों पर अफ़रीदियों का कड़ा पहरा रहता है, पर जिस छिपी राह से मैं तुम्हें 'लँडीकोतल, की ओर लिए जा रही हूँ, वह इतनी पोशीदा है कि दुश्मनों को इसका पता हर्गिज़ नहीं लग सकता, इसलिये इधर पहरे चौकी का उतना कड़ा बंदोबस्त नहीं है। लेकिन शायद, अगर किसी पहरेवाले से मुठभेड़ होजायगी तो ज़रूर हथियार से काम लेना पड़ेगा; इसलिये आप अपनी बंदक भर लें।"

इतना कह कर हमीदा अपनी बंदूक में गोली भरने लगी, मैंने भी अपनी दुनली बंदक भर डाली। फिर हम दोनो चलने लगे। इसी प्रकार बहुत दूर जाने पर हम लोग एक और भी बहुत ही सकरी घाटी में पहुंचे, जिसके दोनो ओर आकाश से बातें करने वाले बहुत ऊंचे पहाड़ खड़े थे। उस घाटी में कुछ दूर चलने पर मैंने कुछ उजेला देखा और दबे पावं कुछ दूर और जाने पर अफ़रीदी सरदार मेहरखां की सतर्कता का अच्छा नमूना पाया। मैंने क्या देखा कि एक अफरीदी सिपाही हाथ में मशाल लिये हुए उस घाटी की रक्षा कर रहा है। उसके एक हाथ में मशाल और दूसरे में नंगी तल्वार है और वह घूम घूम कर घाटी की रक्षा कर रहा है।