पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१००

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योगवाशिष्ठ।

दैव नाम अपने पुरुषार्थ का है, पुरुषार्थ कर्म का नाम है और कर्म नाम वासना का है। वासना मन से होती है और मनरूपी पुरुष जिसकी वासना करता है सोई उसको प्राप्त होती है। जो गाँव के प्राप्त होने की वासना करता है सो गाँव को प्राप्त होता है और जो घाट की वासना करता सो घाट को प्राप्त होता है। इससे और देव कोई नहीं। पूर्व का जो शुभ अथवा अशुभ दृढ़ पुरुषार्थ किया है उसका परिणाम सुख दुःख अवश्य होता है और उसी का नाम देव है। हे रामजी! तुम विचार करके देखो कि अपना पुरुषार्थ कर्म से भिन्न नहीं है तो सुख दुःख देनेवाला और लेनेवाला कोई दैव नहीं हुआ। जीव जो पाप की वासना और शास्त्रविरुद्ध कर्म करता है सो क्यों करता है? पूर्व के दृढ़ पुरुषार्थ कर्म से ही पाप करता है। जो पूर्व का पुण्यकर्म किया होता तो शुभमार्ग में विचरता। फिर रामजी ने पूछा, हे भगवन! जो पूर्व की दृढ़ वासना के अनुसार यह विचरता है तो मैं क्या करूँ? मुझको पूर्व की वासना ने दीन किया है अब मुझको क्या करना चाहिए? वशिष्ठजी बोल, हे रामजी! जो कुछ पूर्व की वासना दृढ़ हो रही है उसके अनुसार जीव विचरता है पर जो श्रेष्ठ मनुष्य है सो अपने पुरुषार्थ से पूर्व के मलिन संस्कारों को शुद्ध करता है तो उसके मल दूर हो जाते हैं। जब तुम सतशास्त्रों और ज्ञानवानों के वचनों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करोगे तब मलिन वासना दूर हो जावेगी। हे रामजी! पूर्व के मलिन और शुभ संस्कारों को कैसे जानिये सो सुनो। जो चित्त विषय और शास्त्रविरुद्ध मार्ग की ओर जावे और शुभ की और न जावे तो जानिये कि कोई पूर्व का कर्म मलीन है भोर जो सन्तजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार चेष्टा करे और संसारमार्ग से विरक्त हो तो जानिये कि पूर्व का शुभकर्म है। इससे हे रामजी! तुमको दोनों से सिद्धता है कि पूर्व का संस्कार शुद्ध है इससे तुम्हारा चित्त सत्संग और सत्शास्त्रों के वचनों को ग्रहण करके शीघ्र ही आत्मपद को प्राप्त होगा और जो तुम्हारा चित्त शुभमार्ग में स्थिर नहीं हो सकता तो द्दढ़ पुरुषार्थ करके संसारसमुद्र से पार हो। हे रामजी! तुम चैतन्य