पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१०१

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मुमुक्षु प्रकरण।

हो, जड़ तो नहीं हो, अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो और मेरा भी यही आशीर्वाद है कि तुम्हारा चित्त शीघ्र ही शुद्ध आचरण और ब्रह्मविद्या के सिद्धान्तसार में स्थित हो। हे रामजी! श्रेष्ठ पुरुष भी वही है जिसका पूर्व का संस्कार यद्यपि मलीन भी था, परन्तु संतों और सत्शास्त्रों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करके सिद्धता को प्राप्त हुभा है और मूर्ख जीव वह हैं जिसने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है जिससे संसार से मुक्त नहीं होता। पूर्व का जो कोई पापकर्म किया होता है उसकी मलिनता से पाप में धावता है और अपने पुरुषार्थ के त्यागने से अन्धा होकर विशेष धावता है जो श्रेष्ठ पुरुष है उसको यह करना चाहिए कि प्रथम तो पाँचों इन्द्रियों को वश करे, फिर शास्त्र के अनुसार उनको बर्तावे और शुभ वासना दृढ़ करे, अशुभ का त्याग करे। यद्यपि त्यागनीय दोनों वासना हैं पर प्रथम शुभ वासना को इकट्ठी करे फिर अशुभ त्याग करे। जब शुद्ध वासना करके कषाय परिपक होगा अर्थात् अन्तःकरण जब शुद्ध होगा तब सन्तों भोर सदशास्त्रों के सिद्धान्त का विचार उत्पन्न होगा और उससे तुमको आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी। उस सान के द्वारा आत्मसाक्षात्कार होगा फिर क्रिया और ज्ञान का भी त्याग हो जावेगा और केवल शुद्ध अद्वैतरूप अपना आप शेष भासेगा। इससे हे रामजी! और सब कल्पना का त्याग कर सन्तजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ करो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे परमपुरुषार्थवर्णनन्नाम
नवमस्सर्गः॥६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मेरे वचनों को ग्रहण करो। यह वचन बान्धव के समान हैं अर्थात् तुम्हारे परम मित्र होंगे और दुःख से तुम्हारी रक्षा करेंगे। हे रामजी! यह जो मोक्ष उपाय तुमसे कहता हूँ उसके अनुसार तुम पुरुषार्थ करो तब तुम्हारा परम अर्थ सिद्ध होगा। यह चित्त जो संसार के और की भोर जाता है उस भोगरूपी खाई में चित्त को गिरने मत दो। और के बिसर जाने के त्याग दो हैं। वह त्याग तुम्हारा परम मित्र होगा और त्याग भी ऐसा करो कि फिर उसका ग्रहण न हो।