पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१०५

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मुमुक्षु प्रकरण।

छिप गई और पाप प्रकट हुआ तो जितनी कुछ राजधर्म की मर्यादा थी सो भी सब नष्ट हो गई और अपनी इच्छा के अनुसार जीव विचरकर कष्ट पाने लगे। उनको देखकर ब्रह्माजी के करुणा उपजी और दया करके मुझसे, सनत्कुमार से और नारद से बोले कि हे पुत्रो! तुम भूलोक में जाकर जीवों को शुद्ध उपदेश कर धर्म की मर्यादा स्थापन करो। जिस जीव को भोग की इच्छा हो उसको कर्मकाण्ड और जप, तप, स्नान, संध्या, यज्ञादिक का उपदेश करना और जो संसार से विरक्त हुए हों और मुमुक्षु हों और जिन्हें परमपद पाने की इच्छा हो उनको ब्रह्मविद्या का उपदेश करना। यह आज्ञा देकर हमको भूमिलोक में भेजा। तब हम सब ऋषीश्वर इकट्ठे होकर विचारने लगे कि जगत् की मर्यादा किस प्रकार हो और जीव शुभमार्ग में कैसे विचरें? तब हमने यह विचार किया कि प्रथम राज्य का स्थापन करो कि उसकी आज्ञानुसार जीव विचरें। निदान प्रथम दण्डकर्त्ता राज्य स्थापन किया। जिन राजों के बड़े वीर्यवान् , तेजवान और उदार आत्मा थे उनको भी हमने अध्यात्मविद्या का उपदेश किया जिससे वे परमपद को प्राप्त हुए और परमानन्दरूप अविनाशीपद ब्रह्मविद्या के उपदेश से उनको प्राप्त हुआ तब वे सुखी हुए। इस कारण ब्रह्मविद्या का नाम राजविद्या है। तब हमने वेद, शास्त्र, श्रुति और पुराणों से धर्म की मर्यादा स्थापन कर जप, तप, यज्ञ, दान, स्नान आदिक क्रिया प्रकट की भौर उपदेश किया कि जीव इसके सेवन से सुखी होगा। तब सब फल को पाकर उसको सेवने लगे, पर उनमें कोई विरले निरहकार हृदय की शुद्धता के निमित्त सेवन करते थे। हे रामजी! जो मूर्ख थे सो कामना के निमित्त मन में फूल के कर्म करते थे और घटीयन्त्र की नाई भटककर कभी ऊर्ध्व और कभी नीच को जाते थे। जो निष्काम कर्म करते थे उनका हृदय शुद्ध होता था और ब्रह्मविद्या के अधिकारी होते थे। उस उपदेश द्वारा आत्मपद की प्राप्ति कर कितने तो जीवन्मुक्त हुए और कई राजा विदितवेद सिद्ध हुए सो राज्य की परम्परा चलाय हमारे उपदेश द्वारा ज्ञानी हुए। राजा दशरथ भी ज्ञानवान हुए और तुम भी इसी दशा को प्राप्त हुए हो।