पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१०६

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योगवाशिष्ठ।

जैसे तुम विरक्त हुए हो वैसे ही आगे भी स्वाभाविक विरक्त हुए हैं सो स्वभाव से ही तुम शुद्ध हो इसी कारण तुम श्रेष्ठ हो। जो कोई अनिष्ट दुःख प्राप्त होता है उससे विरक्तता उपजती है सो तुमको नहीं हुई, तुम्हें तो सब इन्द्रियों के विषय विद्यमान होने पर वैराग्य हुआ है, इससे तुम श्रेष्ठ हो। हे रामजी! मसान आदिक कष्ट के स्थानों को देखके तो सबको वैराग्य उपजती है कि कुछ नहीं, मर जाना है, पर उनमें जो कोई श्रेष्ठ पुरुष होता है सो वैराग्य को द्दढ़ रखता है और मूर्ख है सो फिर विषय में आसक्त होता है इससे जिनको अकारण वैराग्य उपजता है सो श्रेष्ठ हैं। हे रामजी!जो श्रेष्ठ पुरुष हैं सो अपने वैराग्य और अभ्यास के बल से संसारबन्धन से मुक्त हो जाते हैं। जैसे हस्ती बन्धन को तोड़के अपने पल से निकल जाता है और सुखी होता है वैसे ही वैराग्य अभ्यास के बल से बन्धन से ज्ञानी मुक्त होते हैं। हे रामजी! यह संसार बड़ा अनर्थरूप है। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ से इस बन्धन को नहीं तोड़ा उसको राग-द्वेषरूपी अग्नि जलाती है और जिम पुरुष ने अपने पुरुषार्थ से शास्त्र और गुरु के प्रमाण व युक्ति से ज्ञान को सिद्ध किया है वह उस पद को प्राप्त हुआ है। जैसे वर्षाकाल में बहुत वर्षा के होने से वन को दावानल नहीं जला सकता वैसे ही ज्ञानी को आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप कष्ट नहीं दे सकते। हे रामजी! जिन श्रेष्ठ पुरुषों ने संसार को विरस जानकर त्याग दिया है उनको संसार के पदार्थ गिरा नहीं सकते और जो मूर्ख हैं उनको गिरा देते हैं। जैसे तीक्ष्ण पवन के वेग से वृक्ष गिर जाते हैं परन्तु कल्पवृक्ष नहीं गिरता वैसे ही हे रामजी श्रेष्ठ पुरुष वही है जो संसार को विरस जानकर केवल आत्मतत्त्व की इच्छा करके परायण हो। उसी को ब्रह्मविद्या का अधिकार है और वही उत्तम पुरुष है। हे रामजी! तुम भी वैसे ही उज्ज्वल पात्र हो।जैसे कोमल पृथ्वी में बीज बोते हैं वैसे ही तुमको मैं उपदेश करता हूँ। जिसको भोग की इच्छा है और संसार की भोर यन करता है सो पशुवत् है। श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसको संसार तरने का पुरुषार्थ होता है। हे रामजी! प्रश्न उससे कीजिये जिससे जानिये कि