पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१०७

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मुमुक्षु प्रकरण।

यह प्रश्न के उत्तर देने में समर्थ है और जिसको उत्तर देने की सामर्थ्य न हो उससे कदाचित् प्रश्न न करना। उत्तर देने को समर्थ हो और उसके वचन में भावना न हो तब भी प्रश्न न करे, क्योंकि दम्भ से प्रश्न करने में पाप होता है। गुरु भी उन्हीं को उपदेश करता है जो संसार से विरक्त हों और जिनको केवल आत्मपरायण होने की श्रद्धा और आस्तिकभाव हो। हे रामजी! जो गुरु और शिष्य दोनों उत्तम होते हैं तो वचन शोभते हैं। तुम उपदेश के शुद्धपात्र हो। जितने शिष्य के गुण शास्त्र में वर्णन किये हैं, सो सब तुममें पाये जाते हैं और में भी उपदेश करने में समर्थ हूँ, इससे कार्य शीघ्र होगा। हे रामजी! शुभ गुणों से तुम्हारी बुद्धि निर्मल हो रही है, इसलिये मेरा सिद्धान्त का सार वचन तुम्हारे हृदय में प्रवेश करेगा। जैसे उज्ज्वल वस्त्र में केसर का रङ्ग शीघ्र चढ़ जाता है वैसे ही तुम्हारे निर्मल चित्त को उपदेश का रङ्ग लगेगा। जैसे सूर्य के उदय से सूर्यमुखी कमल खिलता हे वैसे ही तुम्हारी बुद्धि शुभ गुणों से खिल आई है। हे रामजी! जो कुछ शास्त्र का सिद्धान्त आत्मतत्त्व मैं तुमसे कहता हूँ उसमें तुम्हारी बुद्धि शीघ्र ही प्रवेश करेगी। जैसे निर्मल जल में सूर्य की कान्ति प्रवेश करती है वैसे ही तुम्हारी बुद्धि आत्मतत्त्व में शुद्धता से प्रवेश करेगी। हे रामजी! मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ के प्रार्थना करता हूँ कि जो कुछ मैं तुमको उपदेश करता हूँ उसमें ऐसी आस्तिक भावना कीजियेगा कि इन वचनों से मेरा कल्याण होगा। जो तुमको धारणा न हो तो प्रश्न मत करना। जिस शिष्य को गुरु वचन में आस्तिक भावना होती है उसका शीघ्र ही कल्याण होता है। अब जिससे तुमको आत्मपद प्राप्त हो सो मैं कहता हूँ। प्रथम जो अज्ञानी जीव में असत्य बुद्धि है उसका संग त्याग करो और मोक्षदार के चारों द्वारपालों से मित्र भावना करो। जब उनसे मित्र भाव होगा तब वह मोक्षदार में पहुँचा देंगे और तभी तुमको आत्म दर्शन होवेगा। उन द्वारपालों के नाम सुनो—शम, सन्तोष, विचार और सत्सङ्ग यह चारों द्वारपाल हैं। जिस पुरुष ने इनको वश में किया है उसको यह शीघ्र ही मोक्षरूपी द्वार के अन्दर