पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१०८

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योगवाशिष्ठ।

कर देते हैं। हे रामजी! जो चारों वश में न हों तो तीन को ही वश में करो, अथवा दो ही को वश कर लो अथवा एक वश करो। जो एक भी वश में होगा तो चारों ही वश में हो जायँगे। इन चारों का परस्पर स्नेह है। जहाँ एक आता है वहाँ चारों आते रहते हैं। जिन पुरुषों ने इनसे स्नेह किया है सो सुखी हुए हैं और जिसने इनका त्याग किया है सो दुःखी हैं। हे रामजी! यदि प्राण का त्याग हो तो भी एक साधन को तो बल से वश करना चाहिये। एक के वश करने से चारों ही वशीभूत होंगे। तुम्हारी बुद्धि में शुभ गुणों ने आके निवास किया है। जैसे सूर्य में सब प्रकाश आ जाते है वैसे ही सन्तों और शास्त्रों ने जो निर्मल गुण कहे हैं सो सब तुम में पाये जाते हैं। हे रामजी! तुम मेरे वचनों के वैसे अधिकारी हुए जैसे तन्द्री के सुनने को अंदोरा (स्पष्ट सुनने वाला) अधिकारी होता है। चन्द्रमा के उदय से जैसे चन्द्रवंशी कमल खिल आते हैं वैसे ही शुभ गुणों से तुम्हारी बुद्धि खिल आई है। हे रामजी! सत्संग और सतशास्त्रों द्वारा बुद्धि को तीक्षण करने से शीघ्र ही आत्मतत्त्व में प्रवेश होता है। इससे श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसने संसार को विरस जान के त्याग दिया है और सन्तों और सत्शास्त्रों के वचनों द्वारा आत्मपद पाने का यत्न करता है। वह अविनाशी पद को प्राप्त होता है। जो शुभ मार्ग त्याग करके संसार की ओर लगा है वह महामूर्ख जड़ है जैसे शीतलता से जल बर्फ हो जाता है वैसे ही अज्ञानी मूर्खता से दृढ़ आत्म मार्ग से जड़ हो जाता है। हे रामजी! अज्ञानी के हृदयरूपी बिल में दुराशारूपी सर्प रहता है, इससे वह कदाचित् शान्ति नहीं पाता और कभी आनन्द से प्रफुल्लित नहीं होता। वह वैसे ही आशा से सदा संकुचित रहता है जैसे अग्नि में मांस संकुच जाता है। हे रामजी! आत्मपद के साक्षात्कार में विशेष आवरण आशा ही है। जैसे सूर्य के आगे मेघ का आवरण होता है वैसे ही आत्मतत्त्व के आगे दुराशा आवस्ण है। जब आशारूपी आवरण दूर हो तब आत्मपद का साक्षात्कार होवे। हे रामजी! आशा तब दूर हो जब सन्तों की संगति और सत्शास्त्रों का विचार हो। हे रामजी! संसाररूपी एक बड़ा वृक्ष है सो बोध