पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०४
योगवाशिष्ठ

उपशम करके आत्मपद को प्राप्त होगे। हे रामजी! जिन्होंने सत्सङ्ग भोर सत्शास्त्रों द्वारा आत्मपद पाया है सो सुखी हुए हैं, फिर उनको दुःख नहीं लगा, क्योंकि दुःख देहाभिमान से होता है सो देह का अभिमान तो तुमने त्याग ही दिया है। जिसने देह का अभिमान त्याग दिया हे और देह को आत्मा से फिर ग्रहण नहीं करता सो सुखी रहता है। हे रामजी! जिसने आत्मिक बल (विचार) द्वारा आत्मपद प्राप्त किया है वह अकृत्रिम आनन्द से सदा पूर्ण है और सब जगत् उसको आनन्दरूप भासता है। जो असम्यग्दर्शी हैं उनको जगत् अनर्थरूप भासता है। हे रामजी! यह संसाररूप सर्प अज्ञानियों के हृदय में दृढ़ हो गया है वह योगरूपी गारुड़ी मन्त्र करके नष्ट हो जाता है, अन्यथा नहीं नष्ट होता। सर्प के विष से एक जन्म में मरता है और संसरणरूपी विष से अनेक जन्म पाकर मरता चला जाता है—कदाचित् शान्तिमान् नहीं होता। हे रामजी! जिस पुरुष ने सत्संग और सत्शास्त्र के वचन द्वारा आत्मपद को पाया है वह आनन्दित हुआ है उसको भीतर बाहर सब जगत् आनन्दरूप भासता है और सब क्रिया करने में उसे आनन्द विलास है। जिसने सत्सङ्ग और सत्शास्त्रों का विचार त्यागा है और संसार के सम्मुख है उसको अनर्थरूप संसार दुःख देता है। कोई सर्प के दंश से दुःखी होते हैं कोई शस्त्र से घायल होते हैं, कितने अग्नि में पड़े की नाई जलते हैं, कितने रस्सी के साथ बँधे होते हैं और कितने अन्धकूप में गिर के कष्ट पाते हैं। हे रामजी! जिन पुरुषों ने सत्ता और सतशास्त्रों द्वारा आत्मपद को नहीं पाया उनको नरकरूप अग्नि में जलना, चक्की में पीसा जाना, आषाढ़ की वर्षा से चूर्ण होना, कोल्हू में पेरा जाना और शस्त्र सं काटा जाना इत्यादि जो बड़े बड़े कष्ट हैं प्राप्त होते हैं। हे रामजी! ऐसा दुःख कोई नहीं जो इस जीव को प्राप्त नहीं होता। आत्मा के अमाद से सब दुःख होते हैं जिन पदार्थों को यह रमणीय जानता है सो चक्र की नाई चञ्चल हैं, कभी स्थिर नहीं रहते। सत्मार्ग को त्यागकर जो इनकी इच्छा करते हैं सो महादुःख को प्राप्त होते हैं और उनका दुःख इसलिए नष्ट नहीं होता कि वह बान के निमित्त