पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१११

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मुमुक्षु प्रकरण।

पुरुषार्थ नहीं करते। जो पुरुष संसार को निरस जानकर पुरुषार्थ की ओर दृढ़ हुआ है उसको आत्मपद की प्राप्ति होती है। हे रामजी! जिस पुरुष को आत्मपद की प्राप्ति हुई है उसको फिर दुःख नहीं होता। अज्ञानी को संसार दुःखरूप है और ज्ञानी को सब जगत् आनन्दरूप है—उसको कुछ भ्रम नहीं रहता। हे रामजी! ज्ञानवान् में नाना प्रकार की चेष्टा भी दृष्टि आती हैं तो भी वह सदा शान्त और आनन्दरूप है। संसार का दुःख उसको स्पर्श नहीं कर सकता, क्योंकि उसने ज्ञानरूपी कवच पहिना है। हे रामजी! ज्ञानवान् को भी दुःख होता है बड़े बड़े ब्रह्मर्षि और राजर्षि बहुत ज्ञानवान् हुए हैं। वे भी दुःख को प्राप्त होते रहे हैं परन्तु वे दुःख से आतुर नहीं होते थे वे सदा आनन्दरूप हैं। जैसे ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि नाना प्रकार की चेष्टा करते जीवों को दृष्टि पाते हैं पर अन्तर से वे सदा शान्तरूप हैं, उनको कर्ता का कुछ अभिमान नहीं। हे रामजी! अज्ञानरूपी मेघ से उत्पन्न मोहरूपी कुहड़ों का वृक्ष ज्ञानरूपी शरत्काल से नष्ट हो जाता है। इमसे स्वसत्ता को प्राप्त होता है और सदा आनन्द से पूर्ण रहता है। वह जो कुछ क्रिया करता है सो उसका विलासरूप है, सब जगत् आनन्दरूप है। शरीररूपी स्थ और इन्द्रियरूपी अश्व हैं। मनरूपी रस्से से उन अश्वों को खींचते हैं। बुद्धिरूपी रथ भी वही है जिस रथ में वह पुरुष बैठा है और इन्द्रियरूपी अश्व उसको खोटे मार्ग में डालते हैं। ज्ञानवान् के इन्द्रियरूपी अश्व ऐसे हैं कि जहाँ जाते हैं वहाँ आनन्दरूप हैं, किसी ठौर में खेद नहीं पाते, सब क्रिया में उनको विलास है और सर्वदा आनन्द से तृप्त रहते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे तत्त्वमाहात्म्यं
नाम द्वादशस्सर्गः॥१२॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इसी दृष्टि का आश्रय करो कि तुम्हारा हृदय पुष्ट हो, फिर संसार के इष्ट अनिष्ट से चलायमान न होगा। जिस पुरुष को इस प्रकार आत्मपद की प्राप्ति हुई है सो आनन्दित हुआ है। वह न शोक करता है, न याचना करता है और हेयोपादेय से भी रहित परम शान्तिरूप, अमृत से पूर्ण हो रहा है। वह पुरुष नाना प्रकार की