पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/११२

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योगवाशिष्ठ।

चेष्टा करता दृष्टि आता है, परन्तु वास्तव में कुछ नहीं करता। जहाँ उसके मन की वृत्ति जाती है वहाँ आत्मसत्ता भासती है जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा अमृत से पूर्ण रहता है वैसे ही ज्ञानवान् परमानन्द से पूर्ण रहता है। हे रामजी! यह जो मैंने तुमसे अमृतरूपी वृत्ति कही है इसको तब जानोगे जब तुमको ब्रह्म का साक्षात्कार होगा। जैसे चन्द्रमा के मण्डल में ताप नहीं होता वैसे ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होने से सब दुःख नष्ट हो जाते हैं। अज्ञानी को कभी शान्ति नहीं होती; वह जो कुछ क्रिया करता है उसमें दुःख पाता है। जैसे कीकर के वृक्ष में करटकों की ही उत्पत्ति होती है वैसे ही अज्ञानी को दुःखों की ही उत्पत्ति होती है। हे रामजी! इस जीव को मूर्खता और अज्ञानता से बड़े दुःख प्राप्त होते हैं जिनके समान और दुःख नहीं। यदि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा में हाथ में ठीकरा ले चाण्डाल के घर से भिक्षा ग्रहण करे वह भी श्रेष्ठ है, पर मूर्खता से जीना व्यर्थ है। उस मूर्खता के दूर करने को मैं मोक्ष उपाय कहता हूँ। यह मोक्ष उपाय परमबोध का कारण है। इसके लिये कुछ संस्कृत बुद्धि भी होनी चाहिए जिससे पद पदार्थ का बोध हो और मोक्ष उपाय शास्त्र को विचारे तो उसकी मूर्खता नष्ट होकर आत्मपद की प्राप्ति होगी। नाना प्रकार के दृष्टान्तों सहित जैसे आत्मबोध का कारण यह शान है वैसा कोई शास्त्र त्रिलोकी में नहीं। इसे जब विचारोगे तब परमानन्द को पावोगे। यह शाम अज्ञानतिमिर के नाश करने को ज्ञानरूपी शलाका है। जैसे अन्धकार को सूर्य नष्ट करता है वैसे ही अज्ञान को इस शास्त्र का विचार नष्ट करता है। हे रामजी! जिस प्रकार इस जीव को कल्याण है सो सुनिये। जब ज्ञानवान गुरु सत्शास्त्रों का उपदेश करे और शिष्य अपने अनुभव से ज्ञान पावे अर्थात् गुरु अपना अनुभव और शास्त्र जब ये तीनों इकट्टे मिलें तब कल्याण होता है। जब तक अकृत्रिम आनन्द न मिले तब तक दृढ़ अभ्यास करे। उस अकृत्रिम आनन्द को प्राप्त करानेवाला मैं गुरु हूँ। जीवमात्र का मैं परम मित्र हूँ। हमारी संगति जीव को आनन्द प्राप्त करानेवाली है। इसलिए जो कुछ मैं चाहता हूँ सो तुम करो। संसार के क्षणमात्र के भोगों को त्याग करो।