पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०८
योगवाशिष्ठ।

जैसे हाथ में दीपक हो और अन्धा होकर कूप में गिरे सो मूर्खता हे वैसे ही संसार भ्रम के निवारणवाले गुरु और शास्त्र विद्यमान् हैं जो उनकी शरण न आवे वह मूर्ख हैं। हे रामजी! जिस पुरुष ने सन्त की संगति और सत्शास्त्र के विचार द्वारा आत्मपद को पाया है सो पुरुष केवल कैवल्यभाव को प्राप्त हुआ है अर्थात् शुद्ध चैतन्य को प्राप्त हुआ है और संसार भ्रम उसका निवृत्त हो गया है। हे रामजी! यह संसार मन के संसरने से उपजा है। जीव का कल्याण बान्धव, धन, प्रजा, तीर्थ देव द्वारा और ऐश्वर्य से नहीं होता, केवल एक मन के जीतने से कल्याण होता है। हे रामजी! जिसको ज्ञान परमपद रसायन कहते हैं; जिसके पाने से जीव का नाश न हो और जिसमें सर्वसुख की पूर्णता हो इसका साधन समता भौर संतोष है। इनसे ज्ञान उत्पन्न होता है। आत्मज्ञानरूपी एक वृक्ष है सो उसका फूल शान्ति है और स्थिति फल है जिस पुरुष को यह ज्ञान प्राप्त हुआ है शान्तिमान् होकर निर्लेप रहता है। उसको संसार का भावाभावरूप स्पर्श नहीं होता जैसे आकाश में सूर्य उदय होने से जगत् की क्रिया होती है और जब वह अदृश्य होता है तब जगत् की क्रिया भी लीन हो जाती है; और जैसे उस क्रिया के होने और न होने में आकाश ज्यों का त्यों है वैसे ही ज्ञानवान सदा निर्लेप है उस आत्मज्ञान की उत्पत्ति का उपाय यह मेरा श्रेष्ठ शान है। हे रामजी! जो पुरुष इस मोक्षोपाय शास्त्र को श्रद्धासंयुक्त पढ़े अथवा सुने तो उसी दिन से वह मोक्ष का भागी हो। मोक्ष के चार द्वारपाल हैं सो मैं तुमसे कहता हूँ। जब इनमें से एक भी अपने वश हो तव मोक्षदार में शीघ्र ही प्रवेश होगा। उन चारों के नाम सुनिये। हे रामजी! शम जीव के परम विश्राम का कारण है। यह संसार जो दीखता है सो मरुस्थल की नदीवर हे इसको देखकर मूर्ख अज्ञानी सुखरूप जल जानकर मृग के समान दौड़ता है। शान्ति को नहीं प्राप्त होता। जब शमरूपी मेघ की वर्षा हो तब सुखी हो। हे रामजी! शम ही परमानन्द परमपद और शिवपद है। जिस पुरुष ने शम पाया हे सो संसारसमुद्र से पार हुआ है। उसके शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। हे रामजी! जैसे चन्द्र उदय होता