पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/११८

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योगवाशिष्ठ।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष विचार की दृढ़ता से ही सिद्ध होते हैं। विचाररूपी कल्पवृक्ष में जिसका अभ्यास होता है सोई पदार्थों की सिद्धि को पाता है। हे रामजी! शुद्ध ब्रह्म का विचार ग्रहण करके आत्मज्ञान को प्राप्त हो जाओ। जैसे दीपक से पदार्थ का ज्ञान होता है वैसे ही पुरुष विचार से सत्य असत्य को जानता है। जो असत्य को त्यागकर सत्य की की ओर यत्न करता है उसी को विचारवान कहते हैं। हे रामजी! संसाररूपी समुद्र में आपदा की तरजें उठती हैं। विचारवान पुरुष उनके भाव प्रभाव में कष्टवान नहीं होता। जो कुछ क्रिया विचार संयुक्त होती है उसका परिणाम सुख है और जो विचार बिना चेष्टा होती है उससे दुःख प्राप्त होता है। हे रामजी! अविचाररूप कष्टक के वृक्ष से दुःख के बड़े कष्टक उत्पन्न होते हैं। अविचाररूपी रात्रि में तृष्णारूपी पिशाचिनी विचरती है और जब विचाररूपी सूर्य उदय होता है तब अविचाररूपी रात्रि और तृष्णारूपी पिशाचिनी नष्ट हो जाती है। हे रामजी! हमारा यही आशीर्वाद है कि तुम्हारे हृदय से भविचाररूपी रात्रि नष्ट हो जाय। विचाररूपी सूर्य से भविचारित संसार दुःख का नाश होता है। जैसे बालक अविचार से अपनी परवाही को वैताल कल्प के भय पाता है और विचार करने से भय नष्ट होता जाता है वैसे ही विचार से संसार दुःख देता है और सतशास्त्र द्वारा युक्तिकर विचार करने से संसार का भय नष्ट हो जाता है। हे रामजी!जहाँ विचार है वहाँ दुःख नहीं है। जैसे जहाँ प्रकाश है वहाँ अन्धकार नहीं होता भोर जहाँ प्रकाश नहीं वहाँ अन्धकार रहता है वैसे ही जहाँ विचार है वहाँ संसारभय नहीं है और जहाँ विचार नहीं वहाँ संसारभय रहता है। जहाँ आत्म विचार उत्पन्न होता है वहाँ सुख देनेवाले शुभगुण स्थित होते हैं। जैसे मणिसरोवर में कमल की उत्पत्ति होती है वैसे विचार में शुभ गुणों की उत्पत्ति होती है। जहाँ विचार नहीं है वहाँ ही दुःखका आगमन होता है। हे रामजी! जो कुछ अविचार से क्रिया करते हैं सो दुःख का कारण होती है। जैसे चूहा बिल को खोद के मृत्तिका निकालता है वह जहाँ इकट्ठा होती है वहाँ बलि की उत्पत्ति होती है वैसे ही अविचार से जो मृत्तिकारूपी पाप क्रिया को इकट्ठा