पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११४
योगवाशिष्ठ।

रामजी! संसाररूपी दीर्घरोग के नष्ट करने को विचार बड़ी औषधि है जैसी पौर्णमासी के चन्द्रमा की उज्ज्वल कान्ति होती है वैसे ही विचारवान् के मुख की उज्ज्वल कान्ति होती है। हे रामजी! विचार से ही परम पद की प्राप्ति होती है। जिससे अर्थ सिद्ध हो उसका नाम विचार है और जिससे अनर्थ सिद्ध हो उसका नाम अविचार है। जो अविचाररूपी मदिरा पान करता है वह उन्मत्त हो जाता है। उससे शुभ विचार कोई नहीं होता और शास्त्र के अनुसार क्रिया भी उससे नहीं होती। हे रामजी! इच्छारूपी रोग विचाररूपी औषधि से निवृत्त होता है। जिस पुरुष ने विचार द्वारा परमार्थसत्ता का आश्रय लिया है सो परम शान्त हो जाता है और हेयोपादेयबुद्धि उसकी नहीं रहती वह सब दृश्य को साक्षीभूत होकर देखता है और संसार के भाव अभाव में ज्यों का त्यों रहता है। वह उदय अस्त से रहित निस्संगरूप है। जैसे समुद्र जल से पूर्ण है वैसे ही विचारवान् आत्मतत्त्व से पूर्ण है। जैसे अन्धकूप में पड़ा हुआ हाथ के बल से निकलता है वैसे ही संसार रूपी अन्धकूप में गिरा हुआ विचार के आश्रय होकर विचारवान् ही निकलने को समर्थ होता है। हे रामजी! राजा को जो कोई कष्ट प्राप्त होता है तो वह विचार करके यत्न करता है तब तक कष्ट निवृत्त हो जाता है। इससे तुम विचार कर देखो कि जो किसी को कष्ट प्राप्त होता है तो विचार से ही मिटता है। विचार का आश्रय करके सिद्धि को प्राप्त हो। वह विचार इस प्रकार प्राप्त होता है कि वेद और वेदान्त के सिद्धान्त को श्रवण कर पाठ करे और भले प्रकार विचरे तब विचार की दृढ़ता से आत्मतत्त्व को प्राप्त होगा। जैसे प्रकाश से पदार्थ का ज्ञान होता है वैसे ही गुरु और शास्त्र के वचनों से तत्त्वज्ञान होता है। जैसे प्रकाश में अन्धे को पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती वैसे ही गुरु, शास्त्र और विचार से जो शून्य हो उसको आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती। हे रामजी! जो विचाररूपी नेत्र से सम्पन्न हैं सोई देखते हैं और जो विचाररूपी नेत्र से रहित हैं वे अन्धे हैं। हे रामजी! ऐसा विचार करे कि "मैं कौन हूँ" यह "जगत् क्या है?" "इसकी उत्पत्ति कैसे हुई"