पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२१

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मुमुक्षु प्रकरण।

और "लीन कैसे होता है?" इस प्रकार सन्तों और शास्त्रों के अनुसार विचार करके सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जान जिसको असत्य जाने उसका त्याग करे और सत्य में स्थित हो। इसी का नाम विचार है। इस विचार से आत्मपद की प्राप्ति होती है। हे रामजी! विचाररूपी दिव्यदृष्टि जिसको प्राप्त हुई है उसको सब पदार्थों का ज्ञान होता है और विचार से ही आत्मपद की प्राप्ति होती है, जिसके पाने से परिपूर्ण हो जाता है और फिर शुभ अशुभ संसार में चलायमान नहीं होता—ज्यों का त्यों रहता है। जब तक प्रारब्ध का वेग होता है तब तक शरीर की चेष्टा होती है और जब तक अपनी इच्छा होती है तब तक शरीर की चेष्टा करता है, फिर शरीर को त्याग कर केवल शुद्धरूप हो जाता है। इससे हे रामजी! ब्रह्मविचार का आश्रय करके संसारसमुद्र को तर जाओ। इतना रुदन रोगी भोर कष्टवान् पुरुष भी नहीं करता जितना विचार रहित पुरुष करता है। हे रामजी! जो पुरुष विचार से शून्य है उसको सब आपदाएँ आ प्राप्त होती हैं जैसे सब नदी स्वभाव से ही समुद्र में प्रवेश करती है वैसे अविचार से सब आपदायें प्रवेश करती हैं। हे रामजी! कीच का कीट, गर्त का कण्टक और अँधेरे बिल में सर्प होना भला है परन्तु विचार से रहित होना तुच्छ है। जो पुरुष विचार से रहित होकर भोग में दौड़ता है वह श्वान है। हे रामजी! विचार से रहित पुरुष बड़ा कष्ट पाता है। इससे एकक्षण भी विचार रहित नहीं रहना। विचार से दृढ़ होकर निर्भय रहना। "मैं कौन हूं" और "दृश्य क्या है?" ऐसा विचार करके और सत्यरूप आत्मा को जानकर दृश्य का त्याग करना। हे रामजी! जो पुरुष विचारवान है सो संसार के भोग में नहीं गिरता, सत्य में ही स्थित होता है। जब विचार स्थित होता है तब तत्त्वज्ञान होता है और जब तत्त्वज्ञान से विश्राम होता है तब विश्राम से चित्त का उपशम होकर दुःख नष्ट होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठेमुमुक्षुप्रकरणेविचारनिरूपणन्नामचतुर्दशस्तसर्गः॥१४॥

वशिष्ठजी बोले, हे अविचार शत्रु के नाशकर्ता, रामजी! जिस पुरुष को सन्तोष प्राप्त हुआ वह परमानन्दित होकर त्रिलोकी के ऐश्वर्य को