पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२४

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योगवाशिष्ठ।

हैं और आपदारूपी बेलि को जड़ समेत नष्ट करनेवाले हैं। हे रामजी! सन्तजन प्रकाशरूप हैं, उनके सङ्ग से पदार्थों की प्राप्ति होती है। जो अपने पुरुषार्थरूपी नेत्र से हीन हैं उनको पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती। जिस पुरुष ने सत्सङ्ग का त्याग किया है वह नरकरूपी अग्नि में लकड़ी की नाई जरेगा और जिस पुरुष ने सत्सङ्ग किया है उसको नरक की अग्नि का नाश करनेवाला सत्सङ्गरूपी मेघ है। हे रामजी! जिसने सत्सङ्गरूपी गङ्गा का स्नान किया है उसको फिर तप दान आदिक साधनों से प्रयोजन नहीं रहता। वह सत्सङ्ग से ही परम गति को प्राप्त होगा इससे और सब उपायों को त्यागकर सत्सङ्ग को ही खोजना चाहिये। जैसे निर्धन मनुष्य चिन्तामणि आदिक धन को खोजता है वैसे ही मुमुक्षु सत्सङ्ग को खोजता है। जो आध्यात्मिकादि तीनों तापों से जलता है उसको शीतल करनेवाला सत्सङ्ग ही है जैसे तपी हुई पृथ्वी मेघ से शीतल होती है वैसे ही हृदय सत्सङ्ग से शीतल होता है। हे रामजी! मोहरूपी वृक्ष का नाश करनेवाला सत्सङ्गरूपी कुल्हाड़ा है। सत्सङ्ग से ही मनुष्य अविनाशी पद को प्राप्त होता है। जिस पद के पाने से और कुछ पाने की इच्छा नहीं रहती। इससे सबसे उत्तम सत्सङ्ग ही है। जैसे सब अप्सराओं से लक्ष्मी उत्तम हैं, वैसे ही सत्सङ्गकर्ता सबसे उत्तम है। इससे अपने कल्याण के निमित्त सत्सङ्ग करना ही तुमको योग्य है। हे रामजी! ये जो चारों मोक्ष के द्वारपाल हैं उनका वृत्तान्त तुमसे कहा। जिस पुरुष ने इनके साथ प्रीति की है, वह शीघ्र आत्मपद को प्राप्त होगा और जो इनकी सेवा नहीं करते सो मोक्ष को न प्राप्त होंगे। हे रामजी! इन चारों में से एक भी जहाँ आता है; वहाँ तीनों और भी आ जाते हैं। जैसे जहाँ समुद्र रहता है वहाँ सब नदी आ जाती हैं वैसे ही जहाँ शम आता है वहाँ सन्तोष, विचार और सत्सङ्ग ये तीनों भी आ जाते हैं और जहाँ साधुसङ्गम होता है वहाँ सन्तोष, विचार और शम ये तीनों आ जाते हैं। जहाँ कल्पवृक्ष रहता है वहाँ सब पदार्थ स्थित होते हैं। जैसे पूर्णमासी के चन्द्रमा में गुण कला सब इकट्ठी हो जाती हैं वैसे ही जहाँ सन्तोष आता है वहाँ और तीनों भी आते हैं और जहाँ विचार