पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२७

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मुमुक्षु प्रकरण।

कैसे हुई! जैसे रस्सी में सर्प, सीप में रूपा, सूर्य की किरणों में जल, आकाश में तरुवर और दूसरा चन्द्रमा; गन्धर्वनगर और मनोराज की सृष्टि भासती हे और जैसे समुद्र में तरङ्ग, आकाश में नीलता और नौका में बैठने से किनारे के वृक्ष और पर्वत चलते दृष्टि पाते हैं एवम् जैसे बादल के चलने से चन्द्रमा धावता दीखता है, स्तम्भ में पुतली भासती हैं और भविष्यत् नगर से आदि ले असत्य पदार्थ सत्य भासते हैं वैसे ही सब जगत् है। भवान से प्रकार भासता है और मवान से ही इसकी उत्पत्ति दीखती है और जान से लीन हो जाता है जैसे निद्रा में स्वमसृष्टि की उत्पत्ति होती है और जागने से निवृत्त हो जाती है वैसे ही अविद्या से जगत् की उत्पत्ति होती है और सम्यकूज्ञान से निवृत्त हो जाती है वह अविद्या कुछ वस्तु ही नहीं है। सर्व ब्रह्म, जो चिदाकाशरूप शुद्ध, अनन्त और परमानन्दस्वरूप है उससे न जगत् उपजता है और न लीन होता है—ज्यों का त्यों आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है। उसमें जगत् ऐसा है जैसे भीत में चित्र होता है जैसे स्तम्भ में पुतलियाँ होती हैं जो हुए बिना भासती है वैसे ही यह सृष्टि मन में है वास्तव में कुछ बनी नहीं-सब आकाशरूप है। जब चित्तसंवेदन स्पन्दरूप होता है तब नाना प्रकार का जगत् होके भासता है और जब निस्स्पन्द होता है तब मिट जाता है। इस प्रकार से जगत् की उत्पत्ति कही है। उसके अनन्तर स्थिति प्रकरण है, उसमें जगत् की स्थिति कही है। जैसे इन्द्र के धनुष में अविचार से रङ्ग है और जैसे सूर्य की किरणों में जल और रस्सी में सर्प भासता है और वह सब सम्यक् दृष्टि से निवृत्त होता है वैसे ही भवान से जगत् की प्रतीति होती है केवल मनोराज से ही जगत् रच लेता है—कुछ उत्पन्न नहीं हुआ है। यह जगत् संकल्पमात्र है। जैसे जब तक मनोराज तब तक वह नगर होता है जब मनोराज का अभाव हुआ तब नगर का भी प्रभाव हो जाता है वैसे ही जब तक अज्ञान है तब तक जगत् की उत्पत्ति होती है जब संकल्प का लय होता है तब जगत् का भी प्रभाव हो जाता है। जैसे ब्रह्माजी के दश पुत्रों की सृष्टि संकल्प से हुई थी वैसे ही यह