पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२९

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मुमुक्षु प्रकरण।

है; रूप अवलोकन और मनस्कार उसका आकाशरूप हो जाता है। वह उस पद को पाप्त होता है जिस पद की उपमा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी नहीं कह सकते।

इति श्रीयोगगशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणेषट्प्रकरणविवरणनन्नामसप्तदशस्सर्गः॥१७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ये परम उत्तम वाक्य हैं। इनको विचारनेवाला उत्तम पद को प्राप्त होता है। जैसे उत्तम खेत में उत्तम बीज बोने से उत्तम फल की उत्पत्ति होती है वैसे ही इनका विचारने वाला उत्तम पद को प्राप्त होता है। ये वाक्य युक्तिपूर्वक हैं; कदाचित्युक्तिसे रहित वाक्यार्थ भी हों तो उनका त्याग करना चाहिये और युक्तिपूर्वक वाक्य अङ्गीकार करना चाहिये। हे रामजी! ब्रह्मा के भी वचन युक्ति से रहित हों तो उनको भी सूखे तृण के समान त्याग देना चाहिये और यदि बालक के वचन युक्तिपूर्वक हों तो उनको अङ्गीकार करना चाहिए। जैसे पिता के कूप का खारी जल हो तो उसे त्यागकर निकट के मिष्टकूप के जल को पान करते हैं वैसे ही बड़े और छोटे का विचार न करके युक्तिपूर्वक वचन अङ्गीकार करना चाहिये। हे रामजी! मेरे वचन सब युक्तिपूर्वक भौर बोध के परम कारण हैं। जो पुरुष एकाग्र होके इस शास्त्र को आदि से अन्त पर्यन्त पड़ेगा अथवा पण्डित से श्रवण करके विचारेगा तब उसकी बुद्धि संस्कारित होगी। जब पहिले वैराग्य प्रकरण को विचारोगे तव वैराग्य उपजेगा। जितने जगत् के रमणीय भोग पदार्थ हैं उनको विरस जानकर किसी पदार्थ की वाञ्छा न करोगे। जब भोग में वैराग्य होता है तब शान्तिरूप आत्मतत्त्व में प्रतीति होती है और जब विचार से बुद्धि संस्कारित होगी तब शास्त्र का सिद्धान्त बुद्धि में स्थित होगा। जैसे शरदकाल में बादल के प्रभाव से आकाश सब ओर से स्वच्छ हो जाता है वैसे ही संसार के विकार कूटकर बुद्धि निर्मल होगी ओर फिर आधिव्याधि की पीड़ा न होगी। हे रामजी! ज्यों २ विचार दृढ़ होगा त्यों-त्यों शान्तात्मा होगे। इससे जितने संसार के यत्न हैं उनको त्याग इस शास्त्र के वारंवार विचार से चेतन्य सत्ता उदय होगी और मोहादिक विकार की सत्ता नष्ट होगी।