पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१३१

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मुमुक्षु प्रकरण।

नाशकर्ता यह मेरा मोक्षउपाय शास्त्र है। जो पुरुष मादि से अंत-पर्यन्त इसे विचारेगा सो पूर्ण संस्कारी होगा। जो पद पदार्थ को जाननेवाला हो भोर दृश्य को वारंवार विचारे तो उसका दृश्य भ्रम नष्ट होगा। इस शास्त्र के विचार में किसी तीर्थ, तप, दान आदिक की अपेक्षा नहीं है। जहाँ स्थान हो वहाँ बैठे और जैसा भोजन गृह में हो वैसा करे ओर वारंवार इसका विचार करे तो ज्ञान नष्ट होकर आत्मपद की प्राप्ति होवेगी। हे रामजी! यह शास्त्र प्रकाशरूप है। जैसे अन्धकार में पदार्थ नहीं दीखता और दीपक के प्रकाश से चक्षु सहित दीखता है वैसे शास्त्र रूपी दीपक विचाररूपी नेत्रसहित हो तो आत्मपद की प्राप्ति हो। हे रामजी! आत्मज्ञान विचार बिना वर ओर शाप से प्राप्त नहीं होता। जब विचार करके दृढ़ अभ्यास कीजिये तब प्राप्त होता है इससे इस मोक्षपावन शास्त्र के विचार से जगदभ्रम नष्ट हो जावेगा और जगत् को देखते २ जगत् भाव मिट जावेगा। जैसे लिखी हुई सर्प की मूर्ति से बिना विचार भ्रम होता है और जब विचारकर देखिये तब सर्पभ्रम मिट जाता है वैसे ही जगदभ्रम विचार करने से नष्ट हो जाता है और जन्म-मरण का भय भी नहीं रहता। हे रामजी। जन्म-मरण का भय भी बड़ा दुःख है, परन्तु इस शास्त्र के विचार से वह भी नष्ट हो जाता है। जिन्होंने इसका विचार त्यागा हे वह माता के गर्भ में कीट होकर भी कष्ट से न छूटेंगे और विचारवान पुरुष आत्मपद को प्राप्त होंगे। जो श्रेष्ठ ज्ञानी है उसको अनन्त सृष्टि अपना ही रूप भासती है कोई पदार्थ आत्मा से भिन्न नहीं भासता। जैसे जिसको जल का ज्ञान है उसको बहर और आवर्त सब जलरूप ही भासती हे वैसे ही ज्ञानवान को सब आत्मरूप ही भासता है और वह इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट की प्राप्ति में इच्छा द्वेष नहीं करता, सदा एकरस मन के संकल्प से रहित शान्तरूप होता है जैसे मंदराचल पर्वत के निकलने से क्षीर समुद्र शान्त हुआ हे वैसे ही संकल्प विकल्प रहित मनुष्य शान्तिरूप होता है। हे रामजी! और तेज दाहक होता है परन्तु ज्ञान का तेज जिस घट में उदय होता है सो शीतल और शान्तिरूप हो जाता है और फिर उसमें संसार का