पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१३३

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मुमुक्षु प्रकरण।

करते हैं तो उनको आत्मतत्त्व की प्राप्ति होती है, क्योंकि वे सारग्राहक होते हैं और जो अपने बोध के अर्थ दृष्टान्त का एक अंश ग्रहण नहीं करते और वाद करते हैं उनको आत्मतत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। इससे दृष्टान्त का एक अंश सारभूत ग्रहण करके दृष्टान्त के सर्वभाव से न मिलना चाहिये और पृथक् को देखकर तर्क न करना चाहिए। जैसे अन्धकार में पदार्थ पड़ा हो तो दीपक के प्रकाश से देख लेते हैं क्योंकि दीपक के साथ प्रयोजन है, ऐसा नहीं कहते कि दीपक किसका है और तेलबत्ती कैसी है और किस स्थान की है वैसे ही दृष्टान्त का एक अंश आत्मबोध के निमित्त अङ्गीकार करना। हे रामजी! जिसके वाक्य में अर्थ सिद्ध हो और जो अनुभव को प्रकट करे वह वचन अङ्गीकार करना और जिससे वाक्यार्थ सिद्ध न हो उसका त्याग करना। जो पुरुष अपने बोध के निमित्त वचन को ग्रहण करता है वही श्रेष्ठ है और जो वाद के निमित्त ग्रहण करता है वह मूर्ख है। जो कोई अभिमान को लेकर ग्रहण करता है वह हस्ती के समान अपने शिर पर मिट्टी डालता है—उसका अर्थ सिद्ध नहीं होता और जो अपने बोध के निमित्त वचन को ग्रहण करके विचारपूर्वक उसका अभ्यास करता है उसका आत्मा शान्त होता है। हे रामजी! आत्मपद पाने के निमित्त अवश्यमेव अभ्यास चाहिये। जब शम, विचार, संतोष और सन्त समागम से बोध को प्राप्त हो तब परम पद को पाता है। हे रामजी! जो कोई दृष्टान्त देता है वह एक देश लेकर कहता है, सर्वमुख कहने से अखण्डता का प्रभाव हो जाता है सर्वमुख दृष्टान्त मुख्य को जानिये वह सत्यरूप होता है। ऐसे तो नहीं होता कि आत्मा तो सत्यरूप, कार्य कारण से रहित, शुद्ध और चैतन्य है उसके बताने के लिये कार्य कारण जगत् का दृष्टान्त कैसे दीजिये जो कोई जगत् का दृष्टान्त देता है वह केवल एक अंश लेके कहता है और बुद्धिमान भी दृष्टान्त के एक अंश को ग्रहण करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष अपने बांध के निमित्त सार को ही ग्रहण करते हैं। जैसे सुधार्थी को चावलपाक प्राप्त हो तो भोजन करने का श्योजन हे वैसे ही जिज्ञासु को भी यही चाहिये कि अपने बोध के