पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१३४

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योगवाशिष्ट।

निमित्त सार को ग्रहण करके वाद न करे, क्योंकि उसकी उत्पत्ति और स्थिति का वाद करना व्यर्थ है। हे रामजी! वाक्य वही है जो अनुभव को प्रकट करे भोर जो अनुभव को न प्रकट करे उसका त्याग करना चाहिये। कदाचित् स्त्री का वाक्य आत्मअनुभव को प्रत्यक्ष करनेवाला हो तो उसको भी प्रहण करना चाहिये और जो परमगुरु के तथा वेद वाक्य भी हों और अनुभव को प्रकट न करें तो उनका त्याग करना चाहिये। जब तक विश्राम न पावे तब तक विचार करना चाहिये। विश्राम का नाम तुरीयपद है। जैसे मन्दराचल पर्वत के क्षोभ से क्षीरसमुद्र शान्त हुआ था वैसे ही विश्राम की प्राप्ति होने से अक्षय शान्ति होती है। हे रामजी! तुरीयपद संयुक्त पुरुष को श्रुति-स्मृति उक्त कमों के करने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता और न करने से कुछ प्रत्यवाय नहीं होता। वह संदेह हो चाहे विदेह हो गृहस्थ हो चाहे विरक्त हो उसको कुछ नहीं करना है। वह पुरुष संसारसमुद्र से पार ही है। हे रामजी! उपमेय की उपमा एक अंश से ग्रहण कर जानता है तब बोध की प्राप्ति होती है और बोध के बिना मुक्ति को प्राप्त नहीं होता,वह केवल व्यर्थ वाद करता है। हे रामजी! जिसके घट में शुद्धि स्वरूप आत्मसत्ता विराजमान है वह जो उसको त्यागकर और विकल्प उठाता है तो वह चोग चञ्चु और मूर्ख है। हे रामजी! प्रत्यक्ष प्रमाण मानने योग्य है, क्योंकि अनुमान ओर अर्थापत्ति आदि प्रमाणों से उसकी सत्ता ही प्रकट होती है। जैसे सब नदियों का अधिष्ठान समुद्र है वैसे ही सब प्रमाणों का अधिष्ठान प्रत्यक्ष प्रमाण है। वह प्रत्यक्ष क्या है सो सुनिये। हे रामजी! चक्षुजन्य ज्ञान संवित संवेदन है, जो उस चक्षु से विद्यमान होता है उसका नाम प्रत्यक्ष प्रमाण है। उन प्रमाणों को विषय करनेवाला जीव है। अपने वास्तव स्वरूप के अज्ञान से अनात्मारूपी दृश्य बना है उसमें अहंकृति से अभिमान हुआ है और अभिमानही से सब दृश्य होता है उससे हेयोपादेय बुद्धि होती है जिससे राग द्वैष करके जलता हे और आपको कर्ता मानकर बहिर्मुख हुआ भटकता है। हे रामजी! जब विचार करके संवेदन अन्तर्मुखी हो तब आत्मपद प्रत्यक्ष होकर निज भाव को प्राप्त होता है और फिर प्रन्छिन्न