पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१३५

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मुमुक्षु प्रकरण।

माच नहीं रहता, शुद्ध शान्ति को प्राप्त होता है। जैसे स्वप्न से जगकर स्वप्न का शरीर और दृश्यभ्रम नष्ट हो जाता है वैसे ही आत्मा के प्रत्यक्ष होने से सब भ्रम मिट जाता है और शुद्ध आत्मसत्ता भासती है। हे रामजी! यह दृश्य और द्रष्टा मिथ्या है। जो दृष्टा है सो दृश्य होता है और जो दृश्य है सो द्रष्टा होता है—यह भ्रम मिथ्या आकाशरूप है। जैसे पवन में स्पन्दशक्ति रहती है वैसे ही आत्मा में संवेदन रहती है। जब संवेदन स्पन्दरूप होती है तब दृश्यरूप होके स्थित होती है। जैसे स्वप्न में अनुभवसत्ता दृश्य रूप होके स्थित होती है वैसे ही यह दृश्य है। सब आत्मसत्ता ही है, ऐसा विचार करके आत्मपद को प्राप्त हो जावो और जो ऐसा विचार करके आत्मपद को प्राप्त न हो सको तो अहङ्कार का जो उल्लेख फुरता है उसका अभाव करो। पीछे जो शेष रहेगा वो शुद्धबोध आत्मसत्ता है। जब तुम शुद्धबोध को प्राप्त होगे तब ऐसी चेष्टा होगी जैसे यंत्र की पुनली संवेदन बिना चेष्टा करती है वैसे ही देहरूपी पुतली का चलानेवाला मनरूपी संवंदन है, उसके बिना पड़ी रहेगी और अहङ्कार का प्रभाव होगा। इससे यत्न करके उस पद के पाने का अभ्यास करो जो नित्य, शुद्ध और शान्तरूप है। हे रामजी! "देव" शब्द को त्यागकर अपना पुरुषार्थ करो और आत्मपद को प्राप्त हो। जो कोई पुरुषार्थ में शूग्मा है सो आत्मपद को प्राप्त होता है और जो नीच पुरुषार्थ का आश्रय करता है सो संसारसमुद्र में डूबता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे दृष्टान्त प्रमाणनामाष्टादशस्सर्गः॥१८॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब सत्सङ्ग करके मनुष्य शुद्धबुद्धि करे तब आत्मपद पाने को समर्थ होता है। प्रथम सत्सङ्ग यह है कि जिसकी चेष्टा शास्त्र के अनुसार हो उसका संग करे और उसके गुणों को हृदय में धरे। फिर महापुरुषों के शम और संतोषादि गुणों का आश्रय करे। शम संतोषादिक से ज्ञान उपजता है। जैसे मेघ से अन्न उपजता है। अन्न से जगत् होता है और जगत् से मेघ होता है वैसे ही शम, संतोष और शमादिक गुण और आत्मज्ञान परस्पर सहकारी होते हैं। शमादिक गुणों से ज्ञान उपजता है आत्मज्ञान करने से शमा-