पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१३७

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श्रीपरमात्मने नमः।
श्रीयोगवाशिष्ठ

तृतीय उत्पत्ति प्रकरण प्रारम्भ।

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वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ब्रह्म और ब्रह्मवेत्ता में "त्व" "इदं" "सः" इत्यादिक सर्व शब्द आत्मसत्ता के आश्रय स्फुरते हैं। जैसे स्वप्न में सब अनुभव सत्ता में शब्द होते हैं वैसे ही यह भी जानो और जो उसमें यह विकल्प होते हैं कि "जगत् क्या है" "कैसे उत्पन हुआ है" "और किसका हे " इत्यादिक चोगवञ्चु हैं। हे रामजी! यह सब जगत् ब्रह्मरूप है यहाँ स्वप्न का दृष्टान्त विचार लेना चाहिए। इसके पहिले मुमुक्षुप्रकरण मैंने तुमसे कहा है अब क्रम से उत्पत्तिप्रकरण कहता हूँ सो सुनिये—जो ज्ञान वस्तुस्वभाव है। हे रामजी! जो पदार्थ उपजता है वही बढ़ता, घटता, मोक्ष और नीच, ऊँच होता है और जो उपजता न हो, उसका बढ़ना, घटना, बन्धु, मोक्ष और नीच, ऊँच होना भी नहीं होता। हे रामजी! स्थावर-जंगम जो कुछ जगत् दीखता हे सो सब आकाशरूप है। द्रष्टा का जो दृश्य के साथ संयोग है इसी का नाम बन्धन है और उसी संयोग के निवृत्त होने का नाम मोक्ष है। उसकी निवृत्ति का उपाय मैं कहता हूँ। देहरूपी जगतचिन्मात्ररूप है और कुछ उपजा नहीं, जो उपजा भासता है सो ऐसा है जैसे सुषुप्ति में स्वप्न। जैसे स्वप्न में सुषुप्ति होती है वैसे ही जगत् का प्रलय होता है और जो प्रलय में शेष रहता है उसकी संज्ञा व्यवहार के निमित्त कहते हैं। नित्य, सत्य, ब्रह्म, आत्मा, सचिदानन्द इत्यादिक जिसके नाम रक्खे हैं वह सबका अपना आप है। चेतनता से उसका नाम जीव हुआ है और शब्द अर्थों को ग्रहण करने लगा है। हे रामजी! चेतन्य में जो स्पन्दता हुई है सो संकल्प विकल्परूपी मन होकर स्थित हुआ है। उसके संसस्ने से देश, काल, नदियाँ, पर्वत, स्थावर भोर जंगमरूप जगत् हुआ