पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१३८

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योगवाशिष्ठ।

है। जैसे सुषुप्ति से स्वप्न हो वैसे जगत् हुआ है। उसको कोई अविद्या, कोई जगत् कोई माया कोई सङ्कल्प और कोई दृश्य कहते हैं; वास्तव में सब ब्रह्मस्वरूप है—इतर कुछ नहीं। जैसे स्वर्ण से भूषण बनता है तो भूषण स्वर्णरूप है; स्वर्ण से इतर भूषण कुछ वस्तु नहीं है वैसे ही जगत् और ब्रह्म में कुछ भेद नहीं है। भेद तो तब हो जब जगत् उपजा हो; जो उपजा ही नहीं तो भेद कैसे भासे और जो भेद भासता है सो मृगतृष्णा के जलवत् है—अर्थात् जैसे मृगतृष्णा की नदी के तरङ्ग भासते हैं पर वहाँ सूर्य की किरणें ही जल के समान भासती हैं, जल का नाम भी नहीं, वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है। चैतन्य के अणु अणु प्रति सृष्टि आभासरूप है कुछ उपजी नहीं। अद्वेतसत्ता सर्वदा अपने आप में स्थित है, फिर उसमें जन्म, मरण और बन्ध, मोक्ष कैसे हो? जितनी कल्पना बन्ध-मोक्ष आदि भासती है सो वास्तविक कुछ नहीं है आत्मा के अज्ञान से भासती है। हे रामजी! जगत् उपजा नहीं, अपनी कल्पना ही जगतरूप होकर भासती है और प्रमाद से सत् हो रही है निवृत्त होना कठिन है। अनियत और नियत शब्द जो कहे हैं सो भावनामात्र हैं, ऐसे वचनों से तो जगत् दूर नहीं होता। हे रामजी! अर्थयुक्त वचनों के बिना दृश्यभ्रम नहीं निवृत्त होता। जो तर्क करके और तप, तीर्थ, दान, स्नान, ध्यानादिक करके जगत् के भ्रम को निवृत्त करना चाहे वह मूर्ख है, इस प्रकार से तो और भी दृढ़ होता है। क्योंकि जहाँ जावेगा वहाँ देश, काल और क्रिया सहित नित्य पाञ्चभौतिक सृष्टि ही दृष्टि आवेगी और कुछ दृष्टि न आवेगी, इससे इसका नाश न होगा और जो जगत् से उपराम होकर समाधि लगाके बैठेगा तब भी चिरकाल में उतरेगा और फिर भी जगत् का शब्द और अर्थ भास आवेगा। जो फिर भी अनर्थरूप संसार भासा तो समाधि का क्या सुख हुआ? क्योंकि जब तक समाधि में रहेगा तभी तक वह सुख रहेगा। निदान इन उपायों से जगत् निवृत्त नहीं होता। जैसे कमल के डोड़े में बीज होता है और जब तक उस बीज का नाश नहीं होता तब तक फिर उत्पन्न होता रहता है और जैसे वृक्ष के पात तोड़िये तो भी बीज