पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१३९

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उत्पत्ति प्रकरण।

का नाश नहीं होता वैसेही तप, दानादिकों से जगत् निवृत्त नहीं होता और तभी तक अज्ञानरूपी बीज भी नष्ट नहीं होता। जब अज्ञानरूपी बीज नष्ट होगा तब जगतरूपी वृक्ष का अभाव हो जावेगा। और उपाय करना मानो पत्तों को तोड़ना है। इन उपायों से अक्षय पद और अक्षय समाधि नहीं प्राप्त होती। हे रामजी! ऐसी समाधि तो किसी को नहीं प्राप्त होती कि शिला के समान हो जावे। मैं सब स्थान देख रहा हूँ कदाचित् ऐसे भी समाधि हो तो भी संसारसत्ता निवृत्त न होगी, क्योंकि अज्ञानरूपी वीज निवृत्त नहीं हुआ। समाधि ऐसी है जैसे जाग्रत् से सुषुप्ति होती है, क्योंकि अज्ञानरूपी वासना के कारण सुषुप्ति से फिर जाग्रत् आती है वैसे ही अज्ञानरूपी वासनासे समाधि से भी जाग जाता है क्योंकि उसको वासना खेंच ले आती है। हे रामजी! तप, समाधि आदिकों से संसारभ्रम निवृत्त नहीं होता। जैसे कांजी से क्षुधा किसी की निवृत्त नहीं होती वैसे ही तप और समाधि से चित्त की वृत्ति एकाग्र होती है परन्तु संसार निवृत्त नहीं होता। जब तक चित्त समाधि में लगा रहता है तब तक सुख होता है और जब उत्थान होता है तब फिर नाना प्रकार के शब्दों और अर्थों से युक्त संसार भासता है। हे रामजी! अज्ञान से जगत् भासता है और विचार से निवृत्त होता है। जैसे बालक को अपनी अज्ञानता से परछाहीं में वैताल की कल्पना होती है और ज्ञान से निवृत्त होती है वैसे ही यह जगत् अविचार से भासता है और विचार से निवृत्त होता है। हे रामजी! वास्तव में जगत् उपजा नहीं असतरूप है। जो स्वरूप से उपजा होता तो निवृत्त न होता पर यह तो विचार से निवृत्त होता है इससे जाना जाता है कि कुछ नहीं बना। जो वस्तु सत्य होती है उसकी निवृत्ति नहीं होती और जो असत् है सो स्थिर नहीं रहती। हे रामजी! सतस्वरूप आत्मा का प्रभाव कदाचित् नहीं होता और असत्रूप जगत् स्थिर नहीं होता। जगत् आत्मा में आभासरूप है प्रारम्भ और परिणाम से कुछ उपजा नहीं। जहाँ चैतन्य नहीं होता वहाँ सृष्टि भी नहीं होती, क्योंकि सृष्टि आभासरूप है। आत्मा आदर्शरूप है उसमें अनन्त सृष्टियाँ प्रतिविम्बित होती हैं।