पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४१

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उत्पत्ति प्रकरण।

मारने को तुम भी समर्थ हो, पर जिसका कोई कर्म नहीं उसके मारने को तुम समर्थ नहीं हो। इससे तुम जाकर उस ब्राह्मण के कर्म खोजो जब कर्म पावोगी तब उसके मारने को समर्थ होगी—अन्यथा समर्थन होगी। हे रामजी! जब इस प्रकार यम ने कहा तब कर्म खोजने के निमित्त मृत्यु चली। कर्म वासना का नाम है। वहाँ जाकर ब्राह्मण के कों को ढूँढ़ने लगी और दशों दिशा में ताल, समुद्र बगीचे और द्वीप से दीपान्तर इत्यादिक सब स्थान देखती फिरी, परन्तु ब्राह्मण के कर्मों की प्रतिभा कहीं न पाई। हे रामजी! मृत्यु बड़ी बलवन्त है, परन्तु उस बाह्मण के कर्मों को उसने न पाया तब फिर धर्मराज के पास गई-जो सम्पूर्ण संशयों को नाश करनेवाले और ज्ञानस्वरूप हैं—और उनसे कहने लगी, हे संशयों के नाशकर्ता! इस ब्राह्मण के कर्म मुझो कहीं नहीं दृष्टि पाते, मैंने बहुन प्रकार से ढूँढ़ा। जो शरीरधारी हैं सो सब कर्मसंयुक्त हैं पर इसका तो कर्म कोई भी नहीं है इसका क्या कारण है? यम बोले, हे मृत्यो! इस ब्राह्मण की उत्पत्ति शुद्ध चिदाकाश से हुई है जहाँ कोई कारण न था। जो कारण बिना भासता है सो ईश्वररूप है। हे मृत्यो! शुद्ध आकाश से जो इसकी उत्पत्ति हुई है तो यह भी वही रूप है। यह ब्राह्मण भी शुद्ध चिदाकाशरूप है और इसका चेतन ही वपु है। इसका कर्म कोई नहीं और न कोई क्रिया है। अपने स्वरूप से आप ही इसका होना हुआ है, इस कारण इसका नाम स्वयम्भू है और सदा अपने आपमें स्थित है। इसको जगत् कुछ नहीं भासता—सदा अद्वैत है। मृत्यु बोली, हे भगवन्! जो यह आकाशस्वरूप है तो साकाररूप क्यों दृष्टि आता है? यमजी बोले, हे मृत्यो! यह सदा निराकार चैतन्य वपु है और इसके साथ आकार और अहंभाव भी नहीं है इससे इसका नाश कैसे हो। यह तो अहं त्वं जानता ही नहीं और जगत् का निश्चय भी इसको नहीं है। यह ब्राह्मण अचेत चिन्मात्र है, जिसके मन में पदार्थों का सद्भाव होता है उसका नाश भी होता है मोर जिसको जगत् भासताही नहीं उसका नाश कैसे हो ? हे मृत्यो! जो कोई बड़ा बलिष्ठ भी हो और सैकड़ों जंजीरें भी हों तो भी आकाश को