पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४२

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योगवाशिस्ठ।

बाँध न सकेगा वैसे ही ब्राह्मण आकाशरूप है इसका नाश केसे हो? इससे इसके नाश करने का उद्यम त्यागकर देहधारियों को जाकर मारो—यह तुमसे न मरेगा। हे रामजी! यह सुनकर मृत्यु आश्चर्यक्त हो अपने गृह लौट भाई। रामजी बोले, हे भगवन! यह तो हमारे बड़े पितामह ब्रह्मा की वार्ता तुमने कही है। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह वार्ता तो मैंने ब्रह्मा की कही है, परन्तु मृत्यु और यम के विवाद निमित्त यह कथा मैंने तुमको सुनाई है। इस प्रकार जब बहुत काल व्यतीत होकर कल्प का अन्त हुआ तब मृत्यु सब भूतों को भोजनकर फिर ब्रह्मा को भोजन करने गई। जैसे किसी का काम हो और यदि एक बार सिद्ध न हुआ तो वह उसे छोड़ नहीं देता फिर उद्यम करता है वैसे ही मृत्यु भी ब्रह्मा के सन्मुख गई। ता धर्मराज ने कहा, हे मृत्यो! यह ब्रह्मा है। यह आकाशरूप है और आकाश ही इसका शरीर है। आकाश के पकड़ने को तुम कैसे समर्थ होगी? यह तो पञ्चभूत के शरीर से रहित है। जैसे संकल्प पुरुष होता है तो उसका आकाश ही वपु होता है वैसे ही यह आकाशरूप आदि, अन्त मध्य और भहं लं, के उल्लेख से रहित और अचेत चिन्मात्र है इसके मारने को तू कैसे समर्थ होगी? यह जो इसका वपु भासता है सो ऐसा है जैसे शिल्पी के मन में स्तम्भ की पुतली होती है पर वह कुछ हुई नहीं वैसे ही स्वरूप से इतर इसका होना नहीं है। यह तो ब्रह्मस्वरूप है, हमारे तुम्हारे मन में इसकी प्रतिभा हुई है, यह तो निर्वषु है। जो पुरुष देहवन्त होता है उसको ग्रहण करना सुगम होता है और वन्ध्या के पुत्र के ग्रहण में श्रम होता है क्योंकि निर्वपु है वैसे यह भी निर्वपु है। इसके मारने की कल्पना को त्याग देहधारियों को जाकर मागे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठेउत्पत्तिप्रकरणे प्रथमसृष्टिवर्णनन्नामदितीयस्सर्गः॥२॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुद्ध चिन्मात्र सत्ता ऐसी सूक्ष्म है कि उसमें आकाश भी पर्वत के समान स्थूल है। उस चिन्मात्र में जो अहं अस्मि चैत्योन्मुखत्व हुआ है उसने अपने साथ देह को देखा। पर वह देह भी आकाशरूप है। हे रामजी! शुद्ध चिन्मात्र में चैत्य का उल्लेख