पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४३

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उत्पत्ति प्रकरण।

किसी कारण से नहीं हुआ, स्वतः स्वाभाविक ही ऐसा उल्लेख आय फुरा है उसी का नाम स्वयंभू ब्रह्म है। उस ब्रह्मा को सदा ब्रह्मा ही का निश्चय है। ब्रह्मा और ब्रह्म में कुछ भेद नहीं है। जैसे समुद्र भोर तरङ्ग में आकाश और शून्यता में और फूल और सुगंध में कुछ भेद नहीं होता वैसे ही ब्रह्मा भोर ब्रह्म में भेद नहीं। जैसे जल द्रवता के कारण तरङ्गरूप होकर भासता है वैसे ही आत्मसत्ता चैतन्यता से ब्रह्मा होकर भासती है। ब्रह्मा दूसरी वस्तु नहीं, सदा चैतन्य आकाश है और पृथ्वी आदिक तत्त्वों से रहित है। हे रामजी! न कोई इसका कारण है और न कोई कर्म है। रामजी बोले, हे भगवन्! आपने कहा कि ब्रह्माजी का वषु पृथ्वी आदि तत्त्वों से रहित है और सङ्कल्पमात्र है तो इसका कारण स्मृतिरूप संस्कार क्यों न हुआ। जैसे हमको और जीवों की स्मृति है वैसे ही ब्रह्मा को भी होनी चाहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! स्मृति संस्कार उसी का कारण होता है जो आगे भी देखा हो। जो पदार्थ आगे देखा होता है उसकी स्मृति संस्कार से होती है और जो देखा नहीं होता उसकी स्मृति नहीं होती। ब्रह्माजी अद्वैत, अज और आदि, मध्य, अन्त से रहित हैं, उनकी स्मृति कारण कैसे हो? वह शुद्ध बोधरूप है और आत्मतत्त्व ही ब्रह्मारूप होकर स्थित हुआ है। अपने आपसे जो इसका होना हुआ है इसीसे इसका नाम स्वयम्भू है। शुद्ध बोध में चैत्य का उल्लेख हुभा है—अर्थात चित्र चैतन्यस्वरूप का नाम है। अपना चित् संवित् ही कारण है और दूसरा कोई कारण नहीं सदा निराकार और संकल्परूप इसका शरीर है और पृथ्वी आदिक भूतों से शुद्ध अन्तवाहक वपु है। रामजी बोले, हे मुनीश्वर! जितने जीव हैं उनके दो दो शरीर हैं—एक अन्तवाहक और दूसरा आधिभोतिक। ब्रह्मा का एक ही अन्तवाहक शरीर कैसे है यह वार्ता स्पष्ट कर कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो सकारणरूप जीव है उनके दो दो शरीर हैं पर ब्रह्माजी अकारण हैं इस कारण उनका एक अन्तवाहक ही शरीर है। हे रामजी! सुनिये, अन्य जीवों का कारण ब्रह्मा हैं इसी कारण यह जीव दोनों देहों को धरते हैं और ब्रह्मा जी का कारण