पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४५

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उतृपत्ति प्रकरण।

जगत् है, जैसे शिल्पी कल्पता है कि इस थम्भ में इतनी पुतलियाँ हैं सो पुतलियाँ उपजीं नहीं थम्भा ज्यों का त्यों स्थित है पुतली का सद्भाव केवल शिल्पी के मन में होता है वैसे ही सब विश्व मन में स्थित है, उसका स्वरूप कुछ नहीं बना। जैसे तरङ्ग ही जलरूप और जल ही तरङ्गरूप है वैसे ही दृश्य भी मनरूप है और मन ही दृश्यरूप है। हे रामजी! जब तक मन का सद्भाव है तब तक दृश्य है—दृश्य का बीज मन है। जैसे कमल का सद्भाव उसके बीज में होता है और उससे कमल के जोड़े की उत्पत्ति होती है वैसे ही जगत् का बीज मन है—सब जगत् मन से उत्पन्न होता है। हे रामजी! जब तुमको स्वप्न आता है तब तुम्हारा ही चित्त दृश्य को चेतता जाता है और तो कोई कारण नहीं होता वैसे ही यह जगत् भी जानना। यह तुम्हारे अनुभव की वार्ता कही है, क्योंकि यह तुमको नित अनुभव होता है। हे रामजी! मन ही जगत् का कारण है और कोई नहीं। जब मन उपशम होगा तब दृश्यभ्रम मिट जावेगा। जब तक मन उपशम नहीं होता तब तक दृश्यभ्रम भी निवृत्त नहीं होता और जब तक दृश्य निवृत्त नहीं होता तब तक शुद्ध बोध नहीं होता एवम् जब तक शुद्ध बोध नहीं होता तब तक आत्मानन्द नहीं होता।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे बोधहेतुवर्णनन्नाम तृतीयस्सर्गः॥३॥

इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार मुनिशार्दूल वशिष्ठजी कहकर तूष्णीम हुए और सर्व श्रोता वशिष्ठजी के वचनों को सुनके और उनके अर्थ में स्थित हो इन्द्रियों की चपलता को त्याग वृत्ति को स्थित करते भये। तरङ्गों के वेग स्थिर हो गये, पिंजरों में जो तोते थे सो भी सुनकर तूष्णीम हो गये, ललना जो चपल थीं सो भी उस काल में अपनी चपलता को त्याग करती भई और वन के पशु पक्षी जो निकट थेसो भी सुनकर तूष्णीम हुए। निदान मध्याह्न का समय हुआ तब राजा के बड़े मृत्यों ने कहा, हे राजन! अव स्नान-सन्ध्या का समय हुआ उठकर स्नान-सन्ध्या कीजिए। तब वशिष्ठजी बोले, हे राजन्। अब जो कुछ कहना था सो हम कह चुके, कल फिर कुछ कहेंगे। राजा ने कहा, बहुत अच्छा और उठकर अर्य्य पाद्य नैवेद्य से वशिष्ठजी का पूजन