पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४६

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योगवाशिष्ठ।

किया और और जो ब्रह्मर्षि थे उनकी भी यथायोग्य पूजा की। तब वशिष्ठजी उठ खड़े हुए और परस्पर नमस्कार कर अपने अपने स्थानों को चले आकाशचारी भाकाश को, पृथ्वी पर रहनेवाले ब्रह्मर्षि और राजर्षि पृथ्वी पर, पातालवासी पाताल को और सूर्य भगवान् दिन रात्रि की कल्पना को त्यागकर स्थिर हो रहे और मन्द मन्द पवन सुगन्धसहित चलने लगी मानो पवन भी कृतार्थ होने आया है। इतने में सूर्य अस्त होकर और ठौर में प्रकाशने लगे, क्योंकि सन्त जन सब ठौर में प्रकाशते हैं। इतने में रात्रि हुई तो तारागण प्रकट हो गये और अमृत की किरणों को धारण किये चन्द्रमा उदय हुआ। उस समय अन्धकार का प्रभाव हो गया और राजा का दार भी चन्द्रमा की किरणों से शीतल हो गया—मानो वशिष्ठजी के वचनों को सुनकर इनकी तप्तता मिट गई। निदान सब श्रोताओं ने विचारपूर्वक रात्रि को व्यतीत किया जब सूर्य की किरण निकली तो अन्धकार नष्ट हो गया—जैसे सन्तों के वचनों से अज्ञानी के हृदय का तम नष्ट होता है—और सब जगत की क्रिया प्रकट हो आई तब खेचर, भूचर और पाताल के वासी सब श्रोता स्नान-सन्ध्या कर अपने-अपने स्थानों में आये और परस्पर नमस्कार कर पूर्व के प्रसंग को उठाकर रामजी सहित बोले हे भगवन! ऐसे मन का रूप क्या है? जिससे कि संसाररूपी दुःखों की मञ्जरी बढ़ती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस मन का रूप कुछ देखने में नहीं पाता। यह मन नाममात्र है। वास्तव में इसका रूप कुछ नहीं है और आकाश की नाई शून्य है। हे रामजी! मन आत्मा में कुछ नहीं उपजा। जैसे सूर्य में तेज, वायु में स्पन्द, जल में तरङ्ग, सुवर्ण में भूषण, मरीचिका में जल है और आकाश में दूसरा चन्द्रमा है वैसे ही मन भी आत्मा में कुछ वास्तव नहीं है। हे रामजी! यह आश्चर्य है कि वास्तव में कुछ उपजा नहीं, पर आकाश की नाई सब घटों में वर्तता है और सम्पूर्ण जगत् मन से भासता है। असत्ररूपी जगत् जिससे भासता है उसी का नाम मन है। हे रामजी! आत्मा शुद्ध और अद्वैत है द्वैतरूप जगत् जिसमें भासता है उसका नाम मन है और संकल्प विकल्प जो फुरता है वह