पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४८

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योगवाशिष्ठ।

जिसको लगा है उसकी निवृत्ति इस प्रकार होती है कि प्रथम तो विचार करके जगत् का स्वरूप जानो, उसके अनन्तर जब आत्मपद में विश्रान्ति होगी तब तुम सर्व आत्मा होगे। हे रामजी! दृश्यभ्रम जो तुमको भासता है उसको में उत्तर ग्रन्थ से निवृत्त करूँगा, इसमें सन्देह नहीं। सुनिये, यह दृश्य मन से उपजा है और इसका सद्भाव मन में ही हुमा है। जैसे कमल का उपजना कमल के बीज में है वैसे ही संसार का उपजना स्मृति से होता है। वह स्मृति अनुभव आकाश में होती है। हे रामजी! स्मृति पदार्थ की होती है जिसका अनुभव पहिले होता है। जितना कुछ जगत् तुमको भासता है सो संकल्प रूप है—कोई पदार्थ सतरूप नहीं। जो वस्तु सत् रूप है उसकी स्थिरता नहीं होती और जो वस्तु सत् रूप है उसका प्रभाव कदाचित् नहीं होता। जितना कुछ प्रपञ्च भासता है सो असत् रूप है मन के चिन्तन से उत्पन्न हुइ है। जब फुरने से रहित हो तब जगत् भ्रम निवृत्त होता है। हे रामजी! पृथ्वी, पर्वत आदिक जगत् असत् रूप न होते तो मुक्त भी कोई न होता। मुक्त तो दृश्यभ्रम से होता है, जो दृश्यभ्रम से नष्ट न होता तो मुक्त भी कोई न होता; पर ब्रह्मर्षि, राजर्षि देवता इत्यादिक बहुतेरे मुक्त हुए हैं, इस कारण कहता हूँ कि दृश्य असत्यरूप मन के संकल्प में स्थित है हे रामजी! एक मन को स्थिरकर देखो, फिर अहं त्वं मादिक जगत् तुमको कुछ न भासेगा। चित्तरूपी आदर्श में संकल्परूपी दृश्य मलीनता है। जब मलीनता दूर होगी तब आत्मा का साक्षात्कार होगा। हे रामजी! यह दृश्यभ्रम मिथ्या उदय हुआ है। जैसे गन्धर्वनगर और स्वप्नपुर वैसे ही यह जगत् भी है। जैसे शुद्ध आदर्श में पर्वत का प्रतिविम्ब होता है वैसे ही चित्तरूपी आदर्श में यह दृश्य प्रतिविम्ब है। मुकुर में जो पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है सो आकाशरूप है उसमें कुछ पर्वत का सद्भाव नहीं वैसे ही आत्मा में जगत् का सद्भाव नहीं। जैसे बालक को भ्रम से परवाही में पिशाचबुद्धि होती है वैसे ही अज्ञानीको जगत् भासता है—वास्तव में जगत् कुछ नहीं है। हे रामजी! न कुछ मन उपजा है और न कुछ जगत् उपजा है—दोनों असवत् रूप हैं। जैसे आकाश