पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५०

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योइवाशिष्ठ।

भासता है। हे रामजी! चलना, दौड़ना, देना, लेना, बोलना, सुनना, रूँधना इत्यादि विषय और रागद्वैषादिक विकार सब मन के फुरने से होते हैं—आत्मा में कोई विकार नहीं। जब मन उपशम होता है तब सब कल्पनाएँ निवृत्त हो जाती हैं इससे संसार का कारण मन ही है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे बोधहेतुवर्णनन्नाम चतुर्थस्सर्गः॥४॥

रामजी बोले, हे भगवन्! मन का रूप क्या है? वह तो मायामय है इसका होना जिससे है सो कौन पद है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब महाप्रलय होता है तब सब जगत् का अभाव हो जाता है और पीछे जो शेष रहता है सो सतरूप है। सर्ग के आदि में भी सवरूप होता है उसका नाश कदाचित् नहीं होता, वह सदा प्रकाशरूप, परमदेव, शुद्ध, परमात्मतत्व, अज, अविनाशी और अद्वैत है। उसको वाणी नहीं कह सकती। वही पद जीवन्मुक्त आता है। हे रामजी! आत्म आदिक शब्द कल्पित हैं; स्वाभाविक कोई शब्द नहीं प्रवर्तता। शिष्य को बताने के लिए शास्त्रकारों ने देव के बहुत नाम कल्पे हैं। मुख्य तो देव को "पुरुष" कहते हैं। वेदान्तवादी उसी को "ब्रह्म" कहते और विज्ञानवादी उसी को विज्ञान से "बोध" कहते हैं। कोई कहते हैं कि "निर्मलरूप" है। शून्यवादी कहते हैं "शून्य" ही शेष रहता है कोई कहते हैं "प्रकाशरूप” है जिसके प्रकाश से सूर्यादिक प्रकाशते हैं। एक उसको "वक्ता" कहते हैं कि आदिवेद का "वना" वही है और स्मृतिकर्ता कहते हैं कि सब कुछ वह स्मृति से करनेवाला है और सब कुछ उसकी इच्छा से हुआ है, इससे सबका कर्ता "सर्व आत्मा" है। हे रामजी! इसी तरह अनेक नाम शास्त्रकारों ने कहे हैं। इन सबका अधिष्ठान परमदेव है और अस्ति आदि षड्रविकारों से रहित शुद्ध, चैतन्य और सूर्यवत् प्रकाशरूप है। वही देव सब जगत् में पूर्ण हो रहा है। हे रामजी! आत्मारूपी सूर्य है और ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक उसकी किरणें हैं। ब्रह्मरूपी समुद्र में जगत् रूपी तरंग बुदबुदे उत्पन्न होकर लीन होते हैं और सब पदार्थ उस आत्मा के प्रकाश से प्रकाशते हैं। जैसे दीपक अपने आपसे प्रकाशता हे और दूसरों को भी प्रकाश देता है वैसे ही आत्मा अपने प्रकाश से प्रकाशता