पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५२

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योगवाशिष्ठ।

देव के जानने से पुरुष फिर जन्म-मरण को नहीं प्राप्त होता वह कहाँ रहता है और किस तप और क्लेश से उसकी प्राप्ति होती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! किसीतप से उस देव की प्राप्ति नहीं होती केवल अपने पौरुष और प्रयत्न से ही उसकी प्राप्ति होती है। जितना कुछ राग, देष, काम, क्रोध, मत्सर और अभिमान सहित तप है वह निष्फल दम्भ है। इनसे आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती। हे रामजी। इसकी परम ओषध सत्संग और सदशात्रों का विचार है जिससे दृश्यरूपी विसूचिका निवृत्त होती है। प्रथम इसका आचार भी शास्त्र और लौकिक अविरुद्ध हो अर्थात् शास्त्रों के अनुसार हो और भोगरूपी गढ़े में न गिरे। दूसरे संतोष संयुक्त यथालाभ संतुष्ट होकर अनिच्छित भागों को प्राप्त हो और जो शास्त्र अविरुद्ध हो उसको ग्रहण करे और जो विरुद्ध हो उसका त्याग करे—इनसे दीन न हो। ऐसे उदारात्मा को शीघ्र ही आत्मपद की प्राप्ति होती है। हे रामजी! आत्मपद पाने का कारण सत्संग और सत्रशास्त्र है। सन्त वह है जिसको सब लोग श्रेष्ठ कहते हैं और सत्शास्त्र वही है जिस में ब्रह्मनिरूपण हो। जब ऐसे सन्तों का संग और सत्शाबों का विचार हो तो शीघ्र ही आत्मपद की प्राप्ति होती है। जब मनुष्य श्रुति विचार द्वारा अपने परम स्वभाव में स्थित होता है तब ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी उस पर दया करते हैं और कहते हैं कि यह पुरुष परब्रह्म हुआ है। हे रामजी! सन्तों का संग और शत्रशास्त्रों का विचार निर्मल करता और दृश्यरूप मैल का नाश करता है जैसे निर्मली, रेत से जल का मैल दूर होता है वैसे ही यह पुरुष निर्मल और चैतन्य होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठेउत्पत्तिप्रकरणे प्रयत्नोपदेशोनामपञ्चमस्सर्गः॥५॥

इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वह देव जो तुमने कहा कि जिसके जानने से संसार बन्धन से मुक्त होता है कहाँ स्थित है और किस प्रकार मनुष्य उसको पाता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह देव दूर नहीं शरीर ही में स्थिर है। नित्य, चिन्मात्र सबसे पूर्ण भौर सर्व विश्व से रहित है। चन्द्रमा को मस्तक में धरनेवाले सदाशिव, ब्रह्माजी और विष्णु और इन्द्रादिक सब चिन्मात्ररूप हैं। बल्कि सब जगत् चिन्मात्र