पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५३

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उत्पत्ति प्रकरण।

रूप है। रामजी बोले, हे भगवन्! यह तो अज्ञान बालक भी कहते हैं कि आत्मा चिन्मात्र है; तुम्हारे उपदेश से क्या सिद्ध हुआ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस विश्व के चेतन जानने से तुम संसारसमुद्र को नहीं लाँघ सकते इस चेतन का नाम संसार है। चेतन जीव है, संसार नामरूप है इससे जरामरणरूप तरंग उत्पन्न होते हैं क्योंकि अहं से दुःख आता है। हे रामजी! चैतन्य होकर जो चेतता है सो अनर्थ का कारण है और चेतन से रहित जो चैतन्य है वह परमात्मा है। उस परमात्मा को जानकर मुक्ति होती है तब चेतनता मिट जाती है। हे रामजी! परमात्मा के जानने से हृदय की चिद्जड़ ग्रन्थि टूट पड़ती अर्थात् अहं मम नष्ट हो जाते हैं, सब संशय छेदे जाते हैं और सब कर्म क्षीण हो जाते हैं। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! चित्त चैतन्योन्मुख होता है तब आगे दृश्य स्पष्ट भासता है, इसके होते चित्त के रोकने को क्योंकर समर्थ होता है और दृश्य किस प्रकार निवृत्त होता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! दृश्यसंयोगी चेतन जीव है, वह जन्मरूपी जंगल में भटकता भटकता थक जाता है। चैतन्य को जो चेतन अर्थात् चिदाकास जीवरूप प्रकाशी कहते हैं सो पंडित भी मूर्ख हैं। यह तो संसारी जीव है इसके जानने से कैसे मुक्ति हो। मुक्ति परमात्मा के जानने से होती है और सब दुःख नाश होते हैं। जैसे विसूचिका रोग उत्तम औषध से ही निवृत्त होता है वैसे ही परमात्मा के जानने से मुक्ति होती है। रामजी ने यह पूछा, हे भगवन्! परमात्मा का क्या रूप है जिसके जानने से जीव मोहरूपी समुद्र को तैरता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! देश से देशान्तर को दूर जो संवित् निमेष में जाता है उसके मध्य जो ज्ञानसंवित है सो परमात्मा का रूप है और जहाँ संसार का अत्यन्त प्रभाव होता है उसके पीछे जो बोधमात्र शेष रहता है वह परमात्मा कारूप है। हे रामजी! वह चिदाकाश जहाँ द्रष्टा दर्शन दृश्य का प्रभाव होता है वही परमात्मा का रूप है और जो अशून्य है और शून्य की नाई स्थित है और जिसमें सृष्टि का समूह शून्य है ऐसी अद्वैत सत्ता परमात्मा का रूप है। हे रामजी! महाचैतन्यरूप बड़े पर्वत की नाई जो चैतन्य स्थित