पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५७

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उत्पत्ति प्रकरण।

लेकर मैं भी वैसे ही विचरूँ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो पुरुष सब जगत् के व्यवहार करता है और जिसके हृदय में द्वैतभ्रम शान्त हुआ है वह जीवन्मुक्त है; जो शुभ क्रिया करता है और हृदय से आकाश की नाई निर्लेप रहता है वह जीवन्मुक्त है; जो पुरुष संसार की दशा से सुषुप्त होकर स्वरूप में जाग्रत् हुआ है और जिसका जगतभ्रम निवृत्त हुआ है वह जीवन्मुक्त है। हे रामजी! इष्ट की प्राप्ति में जिसकी कान्ति नहीं बढ़ती और अनिष्ट की प्राप्ति में न्यून नहीं होती वह पुरुष जीवन्मुक्त है और जो पुरुष सब व्यवहार करता है और हृदय से देष रहित शीतल रहता है वह जीवन्मुक्त है। हे रामजी! जो पुरुष रागद्वैषादिक संयुक्त दृष्टि आता है; इष्ट में रागवान दिखता है और अनिष्ट में द्वैषवान् दृष्टि आता है पर हृदय से सदा शान्तरूप है वह जविन्मुक्त है। जिस पुरुष को अहं ममता का अभाव है और जिसकी बुद्धि किसी में लिपायमान नहीं होती वह कर्म करे अथवा न करे परन्तु जीवन्मुक्त है। हे रामजी! जिस पुरुष को मान अपमान, भय और क्रोध में कोई विकार नहीं उपजता और भाकाश की नाई शून्य हो गया है वह जीवन्मुक्त है। जो पुरुष भोक्ता भी हृदय से अभोक्ता है और सचित्त दृष्टि भाता है पर अचित्त है वह जीवन्मुक्त है। जिस पुरुष से कोई दुःखी नहीं होता और लोगों से वह दुःखी नहीं होता और राग, द्वैष भय और क्रोध से रहित है वह जीवन्मुक्त है। हे रामजी! जो पुरुष चित्त के फुरने से जगत् की उत्पत्ति जानता है और चित्त के अफुर होने से जगत् का प्रलय जानता है और सबमें सदबुद्धि है वह जीवन्मुक्त है। जो पुरुष भोगों से जीता दृष्टि आता है और मृतक की नाई स्थित और चेष्टा करता दृष्टि आता है, पर वास्तव में पर्वत के सदृश अचल है वह जीवन्मुक्त है। हे रामजी! जो पुरुष व्यवहार करता दृष्टि आता है और जिसके हृदय में इष्ट अनिष्ट विकार कोई नहीं है वह जीवन्मुक्त है। जिस पुरुष को सब जगत् आकाशरूप दीखता है और जिसकी निर्वासनिक बुद्धि हुई है वह जीवन्मुक्त है, क्योंकि वह सदा आत्मस्वभाव में स्थित है और सब जगत् को ब्रह्मस्वरूप जानता है।