पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५८

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योगवाशिष्ठ।

इतना सुनकर रामजी बोले, हे भगवन! जीवन्मुक्त की तो तुमने कठिन गति कही। इष्ट अनिष्ट में सम और शीतल बुद्धि कैसे होती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इष्ट अनिष्टरूपी जगत् अज्ञानी को भासता है और ज्ञानी को सब आकाश रूप भासता है उसे राग द्वेष किसी में नहीं होता। औरों की दृष्टि में वह चेष्टा करता दृष्टि आता है, परन्तु जगत् की वार्ता से सुषुप्त है। हे रामजी! जीवन्मुक्त कुछ काल रहकर जब शरीर को त्यागता है तब ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। जैसे पवन स्पन्द को त्यागकर निस्पन्द होता है वैसे ही वह जीवन्मुक्तपद को त्यागकर विदेहमुक्त होता है। तब वह सूर्य होकर तपता है, ब्रह्मा होकर सृष्टि उत्पन्न करता है, विष्णु होकर प्रतिपालन करता है, रुद्र होके संहार करता है, पृथ्वी होके सब भूतों को धरता और ओषधि अन्नादिकों को उत्पन्न करता है, पर्वत होके पृथ्वी को रखता है, जल होके रस देता है, अग्नि होके उष्णता को धारता है, पवन होके पदार्थों को सुखाता है, चन्द्रमा होके ओषधियों को पुष्ट करता है, आकाश होके सब पदार्थों को ठोर देता है, मेघ होके वर्षा करता है और स्थावर जंगम जितना कुछ जगत् है सबका आत्मा होके स्थित होता है। रामजी ने पूछा, हे भगवन! विदेहमुक्त शरीर को धारण कर क्षोभवान होकर जगत् में आता है तो त्रिलोकी का भ्रम क्यों नहीं मिटता? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जगत् आडम्बर अज्ञानी के हृदय में स्थित है और बानवान को सब चिदाकाशरूप है। विदेहमुक्त वही रूप होता है जहाँ उदय अस्त की कल्पना कोई नहीं केवल शुद्ध बोधमात्र है। हे रामजी! यह जगत् आदि से उपजा नहीं केवल अज्ञान से भासता है। मैं तुम और सब जगत् आकाशरूप हैं। जैसे आकाश में नीलता और दूमरा चन्द्रमा भासते हैं। और जैसे मरुस्थल में जल भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है। हे रामजी! जैसे स्वर्ण में भूषण कुछ उपजा नहीं और जैसे समुद्र में तरङ्गे होती है वैसे ही आत्मा में जगत् उपजा नहीं। यह सब जगजाल मन से फुरने से भासता है, स्वरूप से कुछ नहीं बना। ज्ञानी को सदा यही निश्चय रहता है, फिर जगत् का शाम उसको कैसे भासे? हे रामजी! यह भी