पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५९

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उत्पतत्ति प्रकरण।

मैंने तुम्हारे जाननेमात्र को कहा है, नहीं तो जगत् कहाँ है जगत् का तो अत्यन्त प्रभाव है। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जगत् के अत्यन्त प्रभाव हुए विनामात्मबोध की प्राप्ति नहीं होती। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! दृश्य दृष्टा का मिथ्याभ्रम उदय हुआ है। जब दोनों में से एक का प्रभाव हो तब दोनों का प्रभाव हो और जब दोनों का प्रभाव हो तव शुद्ध बोधमात्र शेष रहे। जिस प्रकार जगत् का अत्यन्त प्रभाव हो वह युक्ति मैं तुमसे कहता हूँ। हे रामजी! चिरकाल का जो जगत् दृढ़ हो रहा है वह मिथ्यावान विसूचिका है। वह विचाररूपी मन्त्र से निवृत्त होता है। जैसे पर्वत पर चढ़ना और उतरना शनैः शनैः होता है वैसे ही भविद्धकभ्रम चिरकाल का दृढ़ हो रहा है, विचार करके क्रम से उसकी निवृत्त होती है। जगत् के अत्यन्त प्रभाव हुए बिना आत्मबोध नहीं होता। उसके अत्यन्त प्रभाव के निमित्त मैं युक्ति कहता हूँ, उसके समझने से जगभ्रम नष्ट होगा और जीवन्मुक्त होकर तुम विचरोगे। हे रामजी! बन्धन से वही बंधता है जो उपजा हो और मुक्त भी वही होता है जो उपजा हो। यह जगत् जो तुमको भासता है वह उपजा नहीं। जैसे मरुस्थल में नदी भासती है वह भी उपजी नहीं है भ्रम से भामती है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है पर उपजा नहीं। जैसे अर्द्ध मीलित नेत्र पुरुष को आकाश में तरुवरे भासते हैं वैसे ही भ्रम से जगत् भासता है। हे रामजी! जब महाप्रलय होता है तब स्थावर, जंगम, देवता, किन्नर, दैत्य, मनुष्य, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक जगत् का प्रभाव होता है। इसके अनन्तर जो रहता है सो इन्द्रियग्राहक सत्ता नहीं और असत्य भी नहीं और न शून्य, न प्रकाश, न अन्धकार, न द्रष्टा, न दृश्य, न केवल, न केवल, नचेतन, न जड़, न ज्ञान, न अज्ञान, न साकार, न निराकार, न किञ्चन और न अकिञ्चन ही है। वह तो सर्वशब्दों से रहित है। उसमें वाणी की गम नहीं और जो है तो चेतन से रहित चैतन्य आत्मतत्त्वमात्र है जिसमें अहं त्वं की कोई कल्पना नहीं। ऐसे शेष रहता है और पूर्ण, अपूर्ण, आदि, मध्य, अन्त से रहित है। सोई सत्ता जगतरूप होकर भासती है और कुछ जगत् बना