पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१६०

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योगवाशिष्ठ।

नहीं जैसे मरीचिका में जल भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है। हे रामजी! जब चित्तशक्ति स्पन्दरूप हो भासती है तब जगदाकार भासता है और जब निस्स्पन्द होती है तब जगत् का प्रभाव होता है, पर आत्मसत्ता सदा एकरस रहती है। जैसे वायु स्पन्दरूप होता है तो भासता है और निस्स्पन्दरूप नहीं भासता परन्तु वायु एक ही है वैसे ही जब चित्त संवेदनस्पन्दरूप होता है तब जगत् होकर भासता है और जब निस्स्पन्दरूप होता है तब जगत् मिट जाता है। हे रामजी! चेतन तब जाना जाता है जब संवेदनस्पन्दरूप होता है जैसे सुगन्ध का ग्रहण आधार से होता है और आधाररूप द्रव्य के बिना सुगन्ध का ग्रहण नहीं होता। जैसे वस श्वेत होता है तब रङ्ग को ग्रहण करता है अन्यथा रङ्ग नहीं चढ़ता वैसे ही आत्मा का जानना स्पन्द से होता है स्पन्द के बिना जानने की कल्पना भी नहीं होती। जैसे आकाश में शुन्यता और अग्नि में उष्णता भासती है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है—वह अनन्यरूप है। जैसे जल वता से तरङ्गरूप होके भासता है वैसे ही आत्मसत्ता जगतरूप होके भासती है। वह आकाशवत् शुद्ध है और श्रवण, चक्षु, नासिका, त्वचा, देह और शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध से रहित है और सब ओर से श्रवण करता, बोलता, सूंघता, स्पर्श करता और रस लेता भी आप ही है। आत्मरूपी सूर्य की किरणों में जलरूपी त्रिलोकी फुरती भासती है। जैसे जल में चक्र आवृत्त फुरते भासते सो जल से इतर कुछ नहीं, जलरूप ही हैं वैसे ही जगत् आत्मा से भिन्न नहीं आत्मरूप ही है। आत्म ही जगतरूप होकर भासता है। जिला नहीं पर बोलता है; अभोक्ता है पर भोक्ता होके भासता है; अफर है पर फुरता भासता है; अद्वैत है पर द्वैतरूप होकर भासता है और निराकार है पर साकाररूप होके भासता है। हे रामजी! आत्मसत्ता सब शब्दों से प्रतीत है पर वही सबशब्दों को धारती है और द्रष्टा होके भासती है, इतर कुछ है नहीं। कई सृष्टि समान होती हैं और कई विलक्षण होती हैं परन्तु स्वरूप से कुछ भिन्न नहीं सदा आत्मरूप हैं जैसे सुवर्ण से भूषण समान आकार भी होते और विलक्षण भी