पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१६२

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योगवाशिष्ठ

में है, क्योंकि अधिष्ठानरूप थम्भा है—थम्भे बिना पुतलियाँ नहीं होती, वैसे ही जगत् आत्मा के बिना नहीं होता। हे रामजी! सद्भाव हो जाता है वह सत् से होता है असत् से नहीं और असद्भाव सिद्ध होता है वह सत् ही में होता है असस् में नहीं होता। इससे सत् शून्य नहीं; जो शून्य होता तो किसमें भासता जैसे सोम जल में तरङ्ग का सद्भाव और असद्भाव भी होता है। असद्भाव इस कारण होता है कि तरङ्ग भिन्न कुछ नहीं और सदभाव इस कारण से होता है कि जल ही में तरङ्ग होता है वैसे ही जगत् का सद्भाव असद्भाव आत्मा में होता है शून्य में नहीं। जैसे सोम जल में कहने मात्र को तरङ्ग हैं, नहीं तो जल ही है वैसे ही जगत् कहनेमात्र को है, हुआ कुछ नहीं—एक सत्ता ही है। और शून्य और अशून्य भी नहीं, क्योंकि शून्य और अशून्य ये दोनों शब्द उसमें कल्पित हैं शून्य उसको कहते हैं जो सद्भाव से रहित अभावरूप हो और अशून्य उसको कहते हैं जो विद्यमान हो। पर आत्मसत्ता इन दोनों से रहित है। अशून्य भी शून्य का प्रतियोगी है, जो शून्य नहीं तो अशून्य कहाँ से हो। ये दोनों ही प्रभावमात्र हैं। हे रामजी! यह सूर्य, तारा, दीपक आदि भौतिक प्रकाश भी वहाँ नहीं, क्योंकि प्रकाश अन्धकार का विरोधी है जो यह प्रकाश होता तो अन्धकार सिद्ध न होता। इससे वहाँ प्रकाश भी नहीं है और तब भी नहीं है, क्योंकि सूर्यादिक जिससे प्रकाशते हैं वह तम कैसे हो? आत्मा के प्रकाश बिना सूर्यादिक भी तमरूप हैं। इससे वह शून्य है, न अशून्य है, न प्रकाश है, न तम है, केवल आत्मतत्त्वमात्र है। जैसे थम्भ में पुतलियाँ कुछ है नहीं वैसे ही आत्मा में जगत् कुछ हुआ नहीं। जैसे बेलि और बेलि की मजा में कुछ भेद नहीं वैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं और जैसे जल और तरङ्ग में मृत्तिका और घट में कुछ भेद नहीं वैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं, नाममात्र भेद है। हे रामजी! जल भौर मृत्तिका का जो दृष्टान्त दिया है ऐसा भी आत्मा में नहीं। जैसे जल में तरङ्ग होता है और मृत्तिका में घट होता है सो भी परिणामरूप होता है। आत्मा में जगत् भान नहीं है और