पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१६५

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उत्पत्ति प्रकरण।

भाव से व्याप रहा है और मन बुद्धि इन्द्रियाँ जिसको नहीं पा सकती ऐसी सत्ता परमात्मा का रूप है। हे रामजी! ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का जहाँ प्रभाव हो जाता है उसके पीछे जो शेष रहता है और जिसमें कोई विकल्प नहीं ऐसी अचेत चिन्मात्रसत्ता परमात्मा का रूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे परमात्मस्वरूप
वर्णनन्नाम नवमस्सर्गः॥६॥

इतना सुन रामजी बोले, हे भगवन्! यह दृश्य जो स्पष्ट भासता है सो महाप्रलय में कहाँ जाता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! बन्ध्या स्खी का पुत्र कहाँ से आता है और कहाँ जाता है और आकाश का वन कहाँ से आता और कहाँ जाता है? जैसे भाकाश का वन है वैसे ही यह जगत् है। फिर रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! कध्या का पुत्र और प्राकाश का वन तो तीनों काल में नहीं होता शब्दमात्र है और उपजा कुछ नहीं पर यह जगत् तो स्पष्ट भासता है बन्ध्या के पुत्र के समान कैसे हो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे बन्ध्या का पुत्र और आकाश का वन उपजा नहीं वैसे ही यह जगत् भी उपजा नहीं। जैसे सङ्कल्पपुर होता है और जैसे स्वमनगर प्रत्यक्ष भासता है और आकाशरूप है, इनमें से कोई पदार्थ सत् नहीं वैसे ही यह जगत् भी आकाशरूप है और कुछ उपजा नहीं। जैसे जल भोर तरङ्ग में, काजल और श्यामता में, अग्नि और उष्णता में, चन्द्रमा और शीतलता में, वायु और स्पन्द में आकाश और शून्यता में भेद नहीं वैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं-सदा अपने स्वभाव में स्थित है। हे रामजी! जगत् कुछ बना नहीं, आत्मसत्ता ही अपने आप में स्थित है और उसमें अज्ञान से जगत् भासता है। जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा मरुस्थल में जल और आकाश में तरुवरे भासते हैं वैसे ही आत्मा में अज्ञान से जगत् भासता है। इतना सुन फिर रामजी ने पूछा, हे भगवन्! दृश्य के अत्यन्त प्रभाव बिना बोध की प्राप्ति नहीं होती भोर जगत् स्पष्टरूप भासता है। द्रष्टा और दृश्य जो मन से उदय हुए हैं सो भ्रम से हुए हैं। जो एक है तो दोनों भी हैं और जब दोनों में