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योगवाशिष्ठ

एक का अभाव हो तो दोनों मुक्त हो, क्योंकि जहाँ द्रष्टा है वहाँ दृश्य भी है और जहाँ दृश्य है वहाँ दष्टा भी है। जैसे शुद्ध आदर्श के बिना प्रतिविम्ब नहीं होता वैसे ही द्रष्टा भी दृश्य के विना नहीं रहता और दृश्यद्रष्टा के बिना नहीं। हे मुनीश्वर! दोनों में एक नष्ट हो तो दोनों निर्वाण हो इससे वही युक्ति कहो जिससे दृश्य का अत्यन्त प्रभाव होकर आत्मबोध प्राप्त हो। कोई ऐसा भी कहते हैं कि दृश्य आगे था अब नष्ट हुआ है तो उसको भी संसारभाव देखावेगा और जिसको विद्यमान नहीं भासता और उसके अन्तर सद्भाव है तो फिर संसार देखेगा। जैसे सूक्ष्म वीज में वृक्ष का सद्भाव होता है वैसे ही स्मृति फिर संसार को दिखावेगा और आप कहते हैं कि जगत् का अत्यन्त प्रभाव होता है और जगत् का कारण कोई नहीं—आभासमात्र है—और उपजा कुछ नहीं? हे मुनीश्वर! जिसका अत्यन्त प्रभाव होता है वह वस्तु वास्तव में नहीं होती और जो है ही नहीं तो बन्धन किसको हुआ तब तो सब मुक्तस्वरूप हुए पर जगत् तो प्रत्यक्ष आता है? इससे आप वही युक्त कहो जिससे जगत् का अत्यन्त प्रभाव हो। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! दृश्य के अत्यन्त प्रभाव के निमित्त में एक कथा सुनाता हूँ; जिसका अर्थ निश्चयकर समझने से दृश्य शान्त होकर फिर संसार कदाचित न उपजेगा। जैसे समुद्र में धूल नहीं उड़ती वैसे ही तुम्हारे हृदय में संसार न रहेगा। हे रामजी! यह जगत् जो तुमको भासता है सो अकारणरूप है; इसका कारण कोई नहीं। हे रामजी! जिसका कारण कोई न हो और भासे उसको जानिये कि भ्रममात्र है—उपजा कुछ नहीं जैसे स्वप्न में सृष्टि भासती है वह किसी कारण से नहीं उपजी केवल संवित्रूप है वैसे ही सर्ग आदि कारण से नहीं उपजा केवल आभासरूप है—परमात्मा में कुछ नहीं। हे रामजी! जो पदार्थ कारण बिना भासे तो जिसमें वह भासता है वही वस्तु उसका भधिष्ठानरूप है। जैसे तुमको स्वप्न में स्वप्न का नगर होकर भासता है पर वहाँ तो कोई पदार्थ नहीं केवल आभासरूप है और संवित् बान ही चैतन्यता से नगर होकर भासता है, वैसे ही विश्व अकारण आभास आत्मसत्ता से