पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१६८

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योगवाशिष्ठ।

चूर्ण न कर सकेंगे। हे रामजी! आदि शुद्ध देव अचेत चिन्मात्र है, उनमें चैत्यभाव सदा रहता है, क्योंकि वह चैतन्यरूप है। जैसे वायु में स्पन्द शक्ति सदा रहती है वैसे ही चिन्मात्र में चैत्य का फुरना रहकर "अहमस्मि" भाव को प्राप्त हुआ है। इस कारण उसका नाम चैतन्य है। हे रामजी। जब तक चैतन्य-संवित् अपने स्वरूप के ठौर नहीं पाता तब तक इसका नाम जीव है और संकल्प का नाम बीज चित् संवित है, उसी से सर्वभूत जाति उत्पन्न हुई है। इससे सबका जीव चितन्य-संवित् है। जब जीव संवित् चैत्य को चेतता है तब प्रथम शून्य होकर उसमें शब्दगुण होता है उस आदि शब्दतन्मात्रा से पद, वाक्य और प्रमाण सहित वेद उत्पन्न हुए। जितना कुछ जगत् में शब्द है उसका बीज तन्मात्रा है। जिससे वायु स्पर्श होता है। फिर रूपतन्मात्रा हुई, उससे सूर्य अग्नि आदि प्रकाश हुए। फिर रसतन्मात्रा हुई जिससे जल हुआ और सब जलों का बीज वही है। फिर गन्ध तन्मात्रा हुई जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी हुई और सब पृथ्वी का बीज वही है। हे रामजी! इसी प्रकार पाँचों भूत हुए हैं फिर पृथ्वी, आप, तेज वायु और आकाश से जगत् हुमा है सो भूत पञ्चीकृत और अपञ्चीकृत है। यह भूत शुद्ध चिदाकाशरूप नहीं, क्योंकि संकल्प और मैलयुक्त हुए हैं। इस प्रकार चिद्मणु में सृष्टि भासी है। जैसे वटवीज में से वट का विस्तार होता है वैसे ही चिद्मणु में सृष्टि है। कहीं क्षण में युग और कहीं युग में क्षण भासता है। चिद्मणु में अनन्त सृष्टि फुरती हैं। जब चित्-संवित् चैत्योन्मुख होता है तब अनेक सृष्टि होकर भासती हैं और जब चित् संवित् आत्मा की ओर आता है तब आत्मा के साक्षात्कार होने से सब सृष्टि पिण्डाकार होती है अर्थात सब आत्मारूप होती है इससे इस जगत् के बीज सूक्ष्मभूत हैं और इनका बीज चिद्मणु है। हे रामजी! जैसा बीज होता है वैसा ही वृक्ष होता है। इससे सब जगत् चिदाकाशरूप है। सङ्कल्प से यह जगत् आडम्बर होता है और सङ्कल्प के मिटे सब चिदाकाश होता है। जैसे सङ्कल्प आकाशरूप है वैसे ही जगत् भी आकाशरूप है; आत्मा अनुभव आकाशरूप है जिससे क्षण में अनेकरूप