पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६३
उत्पत्ति प्रकरण।

होते हैं। जैसे संकल्पनगर और स्वप्नपुर होता है वैसे ही यह जगत् है। हे रामजी! इस जगत् का मूल पञ्चभूत है जिसका बीज संवित् और स्वरूप चिदाकाश है। इसी से सब जगत् चिदाकाश है; द्वैत और कुछ नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे जगदुत्पत्तिवर्णनन्ना मैकादशस्सर्गः॥११॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! परब्रह्म सम, शान्त, स्वच्छ, अनन्त, चिन्मात्र मोर सर्वदाकाल अपने आप में स्थित है। उसमें सम-असमरूप जगत् उत्पन्न हुआ है। सम अर्थात् सजातीयरूप और असम अर्थात् भेदरूप कैसे हुए सो भी सुनिये। प्रथम तो उसमें चैत्य का फुरना हुआ है; उसका नाम जीव हुआ और उसने दृश्य को चेता उससे तन्मात्र, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध उपजे। उन्हीं से पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश पञ्चभूतरूपी वृक्ष हुआ और उस वृक्ष में ब्रह्माण्डरूपी फल लगा। इससे जगत् का कारण पञ्चतन्मात्रा हुई हैं और तन्मात्रा का बीज आदि संवित् आकाश है और इसी से सर्व जगत् ब्रह्मरूप हुआ। हे रामजी! जैसे बीज होता है वैसा ही फल होता है। इसका बीज परब्रह्म है तो यह भी परब्रह्म हुआ जो आदि अचेत चिन्मात्र स्वरूप परमाकाश है और जिस चैतन्य संवित् में जगत् भासता है वह जीवाकाश है। वह भी शुद्ध निर्मल है, क्योंकि वह पृथ्वी आदि भूतों से रहित है। हे रामजी! यह जगत् जो तुमको भासता है सो सब चिदाकाशरूप है और वास्तव में दैत कुछ नहीं बना। यह मैंने तुमसे ब्रह्माकाश ओर जीवाकाश कहा। अब जिससे इसको शरीर ग्रहण हुआ सो सुनिये। हे रामजी! शुद्ध विन्मात्र में जो चैत्योन्मुखत्व "अहं अस्मि" हुआ और उस अहंभाव से आपको जीव अणु जानने लगा। अपना वास्तव स्वरूप अन्य भाव की नाई होकर जीव अणु में जो अहंभाव दृढ़ हुआ उसी का नाम अहंकार हुमा उस अहंकार की दृढ़ता से निश्चयात्मक बुद्धि हुई और उसमें सङ्कल्परूपी मन हुआ जब मन इसकी भोर संसरने लगा तब सुनने की इच्छा की इससे श्रवण इन्द्रिय प्रकट हुई; जब रूप देखने की इच्छा