पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१७१

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उत्पत्ति प्रकरण।

भ्रममात्र है। हे रामजी! यह स्थावर, जङ्गम जगत् सब चिदाकाश है। हमको तो सदा चिदाकाश ही भासता है। आदि विराटरूप में ब्रह्मा भी वास्तव में कुछ उपजे नहीं तो जगत् कैसे उपजा। जैसे स्वम में नाना प्रकार के देश काल और व्यवहार दृष्टि आते हैं सो अकारणरूप हैं; उपजे कुछ नहीं और आभासमात्र हैं, वैसे ही यह जगत् आभासमात्र है। कार्य-करण भासते हैं तो भी अकारण हैं। हे रामजी! हमको जगत् ऐसा भासता है जैसे स्वप्न से जागे मनुष्य को भासता है। जो वस्तु अकारण भासी है सो भ्रान्तिमात्र है। जो किसी कारण द्वारा जगत् नहीं उपजा तो स्वभवत् है। जैसे संकल्पपुर और गन्धर्वनगर भासते हैं वैसे ही यह जगत् भी जानो। आदि विराट आत्मा अन्तवाहकरूप है और वह पृथ्वी आदि तत्त्वों से रहित आकाशरूप है तो यह जगत् आधिभौतिक कैसे हो। सब आकाशरूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे स्वयम्भूउत्पत्तिवर्णनन्नाम
द्वादशस्सर्गः॥१२॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह दृश्य मिथ्या असतूरूप है। जो है सो निरामय ब्रह्म है यह ब्रह्माकाश ही जीव की नाई हु है। जैसे समुद्र द्रवता से तरङ्गरूप होता है वैसे ही ब्रह्म जीवरूप होता है। आदिसंवित् स्पन्दरूप ब्रह्मा हुआ है और उस ब्रह्मा से आगे जीव हुए हैं। जैसे एक दीपक से बहुत दीपक होते हैं और जैसे एक संकल्प से बहुत संकल्प होते हैं वैसे ही एक आदि जीव से बहुत जीव हुए हैं। जैसे थम्भे में शिल्पी पुतलियाँ कल्पता है पर वह पुतलियाँ शिल्पी के मन में होती हैं थम्भा ज्यों का त्यों ही स्थित है वैसे ही सब पदार्थ आत्मा में मन कल्पे हैं, वास्तव में आत्मा ज्यों का त्यों ब्रह्म है। उन पुतलियों में बड़ी पुतली ब्रह्म है और छोटी पुतला जीव है। जैसे वास्तव में थम्भा है, पुतली कोई नहीं उपजी; वैसे ही वास्तव में आत्मसत्ता है जगत् कुछ उपजा नहीं; संकल्प से भासता है और संकल्प के मिटने से जगत्कल्पना मिट जाता है। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन! एक जीव से जो बहुत जीव हुए हैं तो क्या वे पर्वत में पाषाण की नाई उपजते हैं वा