पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१७३

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उत्पत्ति प्रकरण।

शुभ अशुभ कर्म रचे हैं और उसी से नीति रची है—अर्थात् यह शुभ है और यह अशुभ है; वही आदि नीति महाप्रलय पर्यन्त ज्यों की त्यों चली जाती है। हे रामजी! यह अनन्त शक्तिमान् देव जिससे आदि फुरना हुआ है वैसे ही स्थित है। जो आदि शक्ति फुरी हे वह वैसे ही है जो अल्पज्ञ फुरा है सो अल्पज्ञ ही है। हे रामजी! संसार के पदार्थों में नीतिशक्ति प्रधान है, उसके लाँघने को कोई भी समर्थ नहीं है। जैसे रचा है वैसे ही महाप्रलय पर्यन्त रहती है। हे रामजी! आदि नित्यविराट्पुरुष अन्तवाहकरूप पृथ्वी भादि तत्त्वों से रहित है और यह जगत् भी अन्तवाहकरूप पृथ्वी आदि तत्त्वों से नहीं उपजा—सब संकल्परूप है। जैसे मनोराज का नगर शून्य होता है वैसे ही यह जगत् शून्य है। हे रामजी! इस सर्ग का निमित्त कारण और समचाय कारण कोई नहीं। जो पदार्थ निमित्त कारण और समवाय कारण बिना दृष्टि आवे उसे भ्रममात्र जानिये, वह उपजता नहीं। जो पदार्थ उपजता है वह इन्हीं दोनों कारणों से उपजा है, पर वह जगत् का कारण इनमें से कोई नहीं। ब्रह्मसत्ता नित्य, शुद्ध और अद्वैत सत्ता है उसमें कार्य कारण की कल्पना कैसे हो? हे रामजी! यह जगत् अकारण है केवल भ्रान्ति से भासता है। जब तुमको आत्मविचार उपजेगा तब दृश्य भ्रम मिट जावेगा। जैसे दीपक हाथ में लेकर अन्धकार को देखिये तो कुछ दृष्टि नहीं आता वैसे ही जो विचार करके देखोगे तो जगत् भ्रम मिट जावेगा। जगत् भ्रम मन के फुरने से ही उदय हुआ है इससे संकल्पमात्र है। इसका अधिष्ठान ब्रह्म है, सब नामरूप उस ब्रह्मसत्ता में कल्पित हैं और पदविकार भी उसी ब्रह्मसत्ता में फुरे हैं पर सबसे रहित और शुद्ध चिदाकाशरूप है और जगत् भी वह रूप है जैसे समुद्र में देवता से तरङ्ग, बुबुदे और फेन भासते हैं वैसे ही आत्मसत्ता में चित्त के फुरने से जगत् भासता है। जैसे आदि चित्त में पदार्थसत्ता दृढ़ हुई है वैसे ही स्थित है और आत्मा के साथ अभेद है, इतर कुछ नहीं, सब चिदाकाश है। इच्छा, देवता, समुद्र, पर्वत ये सब आकाशरूप हैं। हे रामजी! हमको सदा चिदाकाशरूप ही भासता हे