पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१७५

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उत्पत्ति प्रकरण।

हैं और चित्तशक्ति ही ऐसे होकर भासती है। जैसे वसन्त ऋतु आती है तो रसाशक्ति से वृक्ष और बेलें सब प्रफुल्लित होकर भासती हैं वैसे ही चित्तशक्ति को स्पन्दता ही जगत् रूप होकर भासती है। हे रामजी! जैसे वायु स्पन्दता से भासती है वैसे ही जगत् फुरने से भासता है वैसे ही चित्तसंवित् जगत् रूप होकर भासता हे फुरने से ही जगत् है और कोई वस्तु नहीं हैं, इसी से जगत् कुछ नहीं है। जैसे समुद्र तरङ्गरूप हो भासता है, वैसे ही आत्मा जगतरूप हो भासता है। इससे जगत् दृश्यभाव से भासता है पर संवित् से कुछ नहीं। वायु जड़ और आत्मा चैतन्य है और जल भी परिणाम से तरङ्गरूप होता है, आत्मा अव्युत और निराकार है। हे रामजी! चैतन्यरूप रत्न है और जगत् उसका चमत्कार है अथवा चैतन्यरूपी अग्नि में जगरूपी उष्णता है। हे रामजी! चैतन्य प्रकाश ही भौतिक प्रकाशरूप होकर भासता है, इससे जगत् है, और वास्तव से नहीं। चैतन्य सत्ता ही शून्य प्राकाशरूप होकर भासती है! इस भाव से जगत् है वास्तव में नहीं हुआ। इससे जगत् कुछ नहीं चैतनसत्ता ही पृथ्वीरूप होकर भासती है, दृष्टि में आता है इससे जगत् है पर आत्मसत्ता से इतर कुछ नहीं हुआ। चैतन्य रूप घन अन्धकार में जगतरूपी कृष्णता है, अथवा चैतन्यरूपी काजल का पहाड़ है और जगतरूपी उसका परमाणु भ्रम है और चैतन्यरूपी सूर्य में जगतरूपी दिन है, आत्मरूपी समुद्र में जगतरूपी तरङ्ग है, आत्मारूपी कुसुम में जगतरूपी सुगन्ध है, आत्मरूपी वरफ में शुक्लता और शीतलतारूपी जगत् है, आत्मरूपी बेलि में जगतरूपी फूल है, आत्मरूपी स्वर्ण में जगरूपी भूपर्ण है; आत्मरूपी पर्वत में जगतरूपी जड़ सघनता है, आत्मरूपी अग्नि में जगतरूपी प्रकाश है, आत्मरूपी आकाश में जगरूपी शून्यता है, आत्मरूपी ईख में जगतरूपी मधुरता है, आत्मरूपी दूध में जगतरूपी घृत है, आत्मरूपी मधु में जगतरूपी मधुरता है अथवा आत्मरूपी सूर्य में जगतरूपी जलाभास है और नहीं है। हे रामजी! इस प्रकार देखो कि जो सर्व, ब्रह्मा, नित्य, शुद्ध, परमानन्दस्वरूप है वह सर्वदा अपने आप में स्थित है—भेद कल्पना कोई नहीं।