पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१७६

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योगवाशिष्ठ।

जैसे जल द्रवता से तरङ्गरूप होके भासता है वैसे ही ब्रह्मसत्ता जगत् रूप होके भासती है न कोई उपजता है और न कोई नष्ट होता है। रामजी! आदि जो चित्तशक्ति स्पन्दरूप है वह विराटरूप ब्रह्म वास्तव से चिदाकाशरूप है, आत्मसत्ता से इतरभाव को नहीं प्राप्त हुआ। जैसे पत्र के ऊपर लकीरें होती हैं सो पत्र से भिन्न वस्तु नहीं पत्ररूप ही हैं वैसे ही ब्रह्म में जगत् है कुछ इतर नहीं है, बल्कि पत्र के ऊपर लकीरें तो आकार हैं, पर ब्रह्म में जगत् कोई आकार नहीं। सब आकाशरूप मन से फुरता है, जगत् कुछ हुआ नहीं। जैसे शिला में शिल्पी पुतलियाँ कल्पता है वैसे ही आत्मा में मन ने जगत् कल्पना की है। वास्तव में कुछ हुआ नहीं शिला वन की नाई दृढ़ है और सब जगत् को धरि रही है और आकाश की नाई विस्ताररूप होकर शान्तरूप है। निदान हुआ कुछ नहीं जो कुछ है सो ब्रह्मरूप है और जो ब्रह्म ही है तो कल्पना कैसे हो? इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब मुनि शार्दूल वशिष्ठजी ने कहा तब सायंकाल का समय हुआ और सब सभा परस्पर नमस्कार करके अपने अपने आश्रम को गई। फिर सूर्य की किरणों के निकलते ही सब अपने-अपने स्थानों पर आ बैठे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सर्वब्रह्मपति-
पादनन्नाम त्रयोदशस्सर्गः॥१३॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आत्मा में कुछ उपजा नहीं भ्रम से भास रहा है। जैसे आकाश में भ्रम से तरुवरे और मुक्तमाला भासती हैं वैसे ही अज्ञान से आत्मा में जगत् भासता है। जैसे थम्भे की पुतलियाँ शिल्पी के मन में भासती हैं कि इतनी पुतलियाँ इस थम्भे में हैं सो पुतलियाँ कोई नहीं, क्योंकि किसी कारण से नहीं उपजी वैसे ही चेतनरूपी थम्भे में मनरूपी शिल्पी त्रिलोकीरूपी पुतलियाँ कल्पता है। परन्तु किसी कारण से नहीं उपजी-ब्रह्मसत्ता ज्यों की त्यों ही स्थित है। जैसे सोमजल में त्रिकाल तरङ्गों का अभाव होता है इसी प्रकार जगत् का होना कुछ नहीं, चित् के फुरने से ही जगत् भासता है। जैसे सूर्य की किरणें झरोखों में आती है और उसमें सूक्ष्म त्रसरेणु होते हैं उनसे भी