पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१७९

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उत्पत्ति प्रकरण।

बाह्य न जावे—और मैं दर्शन करती रहूँ। इससे मैं सरस्वती की सेवा करूँ। हे रामजी! ऐसा विचार शास्त्रनुसार तपरूप सरस्वती का पूजन करने लगी। निदान तीन रात्र और दिनपर्यन्त निराहार रह चतुर्थदिन में व्रतपारण करे और देवतों, ब्राह्मणों, पण्डितों गुरु और ज्ञानियों की पूजा करके स्नान, दान, तप, ध्यान नित्यपति कीर्तन करे पर जिस प्रकार आगे रहती थी उसी प्रकार रहे भर्ती को न जनावे। इसी प्रकार नेमसंयुक्त क्लेश से रहित तप करने लगी। जब तीन सौ दिन व्यतीत हुए तब प्रीतियुक्त हो सरस्वती की पूजा की और वागीश्वरी ने प्रसन्न होकर दर्शन दिया और कहा, हे पुत्रि! तूने भर्ती के निमित्त निरन्तर तप किया है, इससे मैं प्रसन्न हुई, जो वर तुझे अभीष्ट हो सो माँग। लीला बोली, हे देवि! तेरी जय हो। मैं अनाथ तेरी शरण हूँ मेरी रक्षा करो। इस जन्म को जरारूपी अग्नि जो बहुत प्रकार से जलाती है उसके शान्त करने को तुम चन्द्रमा हो और हृदय के तम नाश करने को तुम सूर्य हो। हे माता! मुझको दो वर दो-एक यह कि जब मेरा भर्ता मृतक हो तब उसका पुर्यष्टक बाह्य न जावे अन्तःपुर ही में रहे और दूसरा यह कि जब मेरी इच्छा तुम्हारे दर्शन की हो तब तुम दर्शन दो। सरस्वती ने कहा ऐसा ही होगा। हे रामजी! ऐसा वरदान देकर जैसे समुद्र में तरङ्ग उपज के लीन होते हैं वैसे ही देवी अन्तर्धान हो गई और लीला वरदान पाकर बहुत प्रसन्न हुई। कालरूपी चक्र में क्षणरूपी पारे लगे हुए हैं और उसकी तीन सौ साठ कीलें हैं वह चक्र वर्ष पर्यन्त फिरकर फिर उसी ठौर माता है। ऐसे कालचक्र के वर्ग से राजा पद्म रणभूमि में घायल होकर घर में भाकर मृतक हो गया। पुर्यष्टक के निकलने से राजा का शरीर कुम्हिला गया और रानी उसके मरने से बहुत शोकवान हुई। जैसे कमलिनी जल विना कुम्हिला जाती है वैसे ही उसके मुख की कान्ति दूर हो गई और विलाप करने लगी। कभी ऊँचे स्वर से रुदन करे और कभी चुप रह जावे। जैसे चकवे के वियोग से चकवी शोकवान होती है और जैसे सर्प की फुत्कार लगने से कोई मूञ्चित होता है वैसे ही राजा के वियोग से लीला मूर्च्छित